शुक्रवार, अप्रैल 11, 2008

'मुझे चाँद चाहिए' : रंगमंच की दुनिया को करीब से देखती सुरेंद्र वर्मा की पठनीय कृति

पिछले कुछ सालों से कई बार ये प्रश्न मुझसे पूछा जाता रहा कि क्या आपने 'मुझे चाँद चाहिए' पढ़ी है। जब मेरा जवाब नकरात्मक होता तो इसे जल्द पढ़ने की सलाह दी जाती थी। इंटरनेट पर मैंने बहुत लोगों को इसे अपनी पसंदीदा किताब की सूची में देखा था और मन ही मन ये हीन ग्रंथी भी विकसित हो चली थी कि शायद मैं ही एक रह गया हूँ इस किताब को न पढ़ने वाला। इसलिए जब ये किताब नई खरीदी गई पुस्तकों की सूची में पुस्तकालय में दिखी तो मैंने इसे लेने में ज़रा भी देर नहीं की। पर १९९६ में साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत इस किताब के आवरण पर उर्मिला मातोंडकर का चित्र देख कर उन सनीसनीखेज पॉकेटबुक्सों की याद आ गई जो रेलवे की बुक स्टॉलों पर धड़ल्ले से बिका करती हैं। दिल्ली के राधाकृष्ण प्रकाशन ने इस पुस्तक से काफी पैसे बनाए हैं पर ५७० पृष्ठों वाली १९५ रुपये की इस किताब में कहीं लेखक के संबंध में दो शब्द लिखने की जरूरत नहीं समझी गई।

खैर चलिए कुछ बातें कर लें इस उपन्यास के बारे में। सुरेंद्र वर्मा अपनी इस किताब की शुरुवात प्रसिद्ध रोमन सम्राट जूलियस सीजर यानि कालिगुला की इन पंक्तियों से करते हैँ
"...अचानक मुझमें असंभव के लिए आकांक्षा जागी। अपना यह संसार काफी असहनीय है, इसलिए मुझे चंद्रमा, या खुशी चाहिए-कुछ ऐसा, जो वस्तुतः पागलपन-सा जान पड़े। मैं असंभव का संधान कर रहा हूँ...देखो, तर्क कहाँ ले जाता है-शक्ति अपनी सर्वोच्च सीमा तक, इच्छाशक्ति अपने अंतर छोर तक ! शक्ति तब तक संपूर्ण नहीं होती, जब तक अपनी काली नियति के सामने आत्मसमर्पण न कर दिया जाये। नहीं, अब वापसी नहीं हो सकती। मुझे आगे बढ़ते ही जाना है... .."


वर्मा जी ने इन पंक्तियों का चुनाव शायद इसलिए किया कि पुस्तक के केंद्रीय चरित्र वर्षा वशिष्ठ भी कुछ ऍसे ही जज़्बातों को जीवन पथ में लेकर आगे ही बढ़ती गई। पर कौन थी ये वर्षा वशिष्ठ? कैसा था उसका पारिवारिक परिवेश। सुरेंद्र वर्मा अपनी पुस्तक की नायिका का परिचय अपने पाठकों से कुछ इस तरह कराते हैं..

"किशनदास शर्मा प्राइमरी स्कूल में संस्कृत के अध्यापक थे। शहर के पुराने, निम्नमध्य वर्गीय इलाके में सँकरी, ऊबड़खाबड़ गलियों और बदबूदार नालियों के बीच उनका पंद्रह रुपया महीना किराये का आधा कच्चा, आधा पक्का दुमंजिला मकान था। बड़ा बेटा महादेव स्टेट रोडवेज में क्लर्क था। दो साल पहले उसका तबादला पीलीभीत हो गया था। बड़ी बेटी गायत्री माँ पर गयी थी-गोरी, आकर्षक। पढ़ाई के नाम से उसे रुलाई आती थी, इसलिए इंटरमीडिएट के बाद उसने विवाह के शुभ मुहूर्त की प्रतीक्षा कर घर सँभाल लिया। इससे माँ को बहुत राहत मिली, क्योंकि ‘जिंदगी भर कोल्हू में जुते रहने के बाद अब बचा-खुचा समय तो सीताराम-सुमिरन में लगे।’ सबसे छोटी नौ वर्ष की गौरी उर्फ झल्ली थी। उसके ऊपर तेरह वर्ष का किशोर और बीचों-बीच की साँवली, लंबी-छरहरी, बड़ी-बड़ी आँखों वाली सिलबिल उर्फ यशोदा शर्मा। "

ये उपन्यास शाहजहाँपुर की एक आम निम्नमध्य वर्गीय किशोरी सिलबिल के अपने छोटे शहर के दकियानूसी परिवेश से निकल दिल्ली के रंगमंच और फिर मुंबई के सिने जगत में एक काबिल और स्थापित अभिनेत्री बनने की संघर्ष गाथा है।

सिलबिल के चरित्र के कई आयाम हैं। सिलबिल अपने जीवन की नियति से दुखी है। अपने परिवेश से निकलने की छटपटाहट है उसमें। नहीं तो वो घरवालों से बिना पूछे अपना नाम यशोदा शर्मा से वर्षा वशिष्ठ क्यूँ करवाती? अपनी शिक्षिका की मदद से रंगमंच से जुड़ने वाली सिलबिल, अपने पहले मंचन में सफलता का स्वाद चख इसे ही अपनी मुक्ति का मार्ग मान लेती है और अपनी सारी शक्ति अपनी अभिनय कला को और परिपक्व और परिमार्जित करने में लगा देती है।

जीवन के नए अनुभवों से गुजरने में वर्षा वशिष्ठ को कोई हिचकिचाहट नहीं, चाहे वो उसके बचपन और किशोरावस्था के परिवेश और मूल्यों से कितना अलग क्यूँ ना हो। बल्कि इनका आनंद लेने की एक उत्कंठा है उसमें। पर उसके व्यक्तित्व की विशेषता ही यही है कि ये अनुभव उसे अपने अंतिम लक्ष्य से कभी नहीं डिगा पाते।

अपने केंद्रिय चरित्र के माध्यम से इस उपन्यास में सुरेंद्र वर्मा ने समाज, रंगमंच और सिने जगत से जुड़े विभिन्न पहलुओं को छूने की कोशिश की है। पर जब वो रंगमच से जुड़ी बारीकियों को विश्लेषित करते हैं तो उनकी लेखनी सबसे सशक्त जान पड़ती है। शायद ये इसलिए भी है कि रंगमंच उनका कार्यक्षेत्र रहा है। सुरेंद्र वर्मा ने रंगमंच के जिस परिदृश्य को उभारा है वो आज भी बहुत कुछ वैसा ही है। कितने ही नौजवान और नवयुवतियाँ देश के कोने कोने से राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में आते हैं तो इस जोश और समर्पण के साथ कि कला के इस माध्यम में अपनी चुनी हुई विधा में वे एक अलग पहचान बना सकें और जिससे उनका जीवन भर का एक अटूट रिश्ता बना रहे। पर ये समर्पण धीरे-धीरे तब घटता चला जाता है जब वो इस क्रूर सत्य से मुखातिब होते हैं कि इस क्षेत्र में की गई अथक मेहनत एक कलात्मक संतोष तो दे पाती है पर वो जीवकोपार्जन के लिए पर्याप्त नहीं होती। और इस सत्य ने कलात्मक रंगमंच को सिने जगत और निजी चैनलों के धारावाहिकों में जाने का ज़रिया भर बना दिया है।

सिने और धारावाहिक जगत की फार्मूलाप्रियता सच्चे और मँजे कलाकारों को किस तरह समझौतों का गुलाम बना देती है इस बात को भी लेखक ने कथानक के माध्यम से उकेरा है।

सुरेंद्र वर्मा की लेखन शैली में हास्य के पुट ज्यादा नहीं है जो कभी कभी उपन्यास के कुछ अंशों को बोझिल कर देते हैं। । कुछ हद तक तो इसके लिए कथानक जिम्मेवार है। पर कुछ हिस्सों में उनकी लेखनी गंभीर घटनाक्रम में हल्के फुलके लमहे दे जाती है। अब यहीं देखिए सिलबिल और उसके घर के तोते अनुष्टुप के संबंधों को सुरेंद्र वर्मा किस रूप में पेश करते हैं


सिलबिल के साथ अनुष्टुप का संबंध वैसा ही था, जैसे बाघिन का हिरनी से होता है। जैसे ही सिलबिल सामने आती, अनुष्टुप की टोकाटाकी शुरू हो जाती, ‘‘सिलबिल धीरे बोलो,’’ ‘‘सिलबिल, तुलसी में पानी नहीं दिया ?’’ ‘सिलबिल, देर लगा दी। ’’
सिलबिल की पहली रणनीति अनुष्टुप को अपनी ओर फोड़ने की बनी। उसने मीठा ग्राइपवाटर पिलाया, सर्दी से पिंजरा धूप में रखा, मिश्री की डली खिलायी। पर जब इस पर भी अनुष्टुप ने अपने छंद का मूल-भाव नहीं छोड़ा, तो उसने गोबरभरी हरी मिर्च पिंजरे की कटोरी में रख दी। इस पर अनुष्टुप ने ‘सिलबिल कपटी है’(उसका शब्द-चयन रीतिकाल के निकट पड़ता था और जीवन-दृष्टि भक्ति काल के !) की रट लगा कर माँ की डाँट की भूमिका बना दी।


सुरेंद्र वर्मा ने इतने मोटे उपन्यास की रोचकता को बनाए रखने की पूरी कोशिश की है और इसमें वो सफल भी हुए हैं, पर कई बार नाटको से संबधित शब्दावली से उनका अतिशय प्रेम खटकता है। जब जब कहानी दिलचस्प मोड़ लेती है वो अपने पात्रों के वार्तालाप के पहले 'नाटकीय समक्षता' शब्द को दोहराना नहीं भूलते जो बार बार पढ़ने में बड़ा अज़ीब सा लगता है। खैर एक मज़ेदार बात ये रही कि इस उपन्यास ने मेरा इतना ज्ञान जरूर बढ़ाया है कि अब मैं समझ सकता हूँ कि प्रमोद सिंह के चिट्ठे के नाम में जो अज़दक आता है वो वास्तव में क्या बला है। उपन्यास में इस बात का जिक्र आता है कि नाटक खड़िया का घेरा (The Caucasian Chalk Circle) का मुख्य किरदार 'अज़दक' था। मेरी एक ब्लॉगमित्र के निक सिलबिल का रहस्य भी मुझे ये किताब पढ़ने के बाद ही उद्घाटित हुआ। :)

ये तो नहीं कहूँगा कि ये किताब मेरी सबसे पसंदीदा किताबों की फेरहिस्त में आ गई है पर फिर भी इसके लगभग छः सौ पृष्ठों से गुजरना कुल मिलाकर एक अच्छा अनुभव था।

इस किताब को आप यहाँ या यहाँ से खरीद सकते हैं।


इस चिट्ठे पर आप इन पुस्तकों के बारे में भी पढ़ सकते हैं
असंतोष के दिन, गुनाहों का देवता, कसप, गोरा, महाभोज, क्याप, एक इंच मुस्कान, लीला चिरंतन, क्षमा करना जीजी, मर्डरर की माँ, दो खिड़कियाँ, हमारा हिस्सा, मधुशाला
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19 टिप्पणियाँ:

Unknown on अप्रैल 11, 2008 ने कहा…

धन्यवाद - मनीष - अच्छा मिलाया इस किताब से - ६०० पन्ने पढ़ने की क्षमता सराहनीय है, - देखिये अगर इस साल छुट्टी मिली तो पढेंगे - आजकल ब्लॉग जगत में बहुरि गुनी जन कबाड़खाना पढ़ने की भी सलाह दे रहे हैं सो वो भी कार्यक्रम में बिठानी है

अनूप शुक्ल on अप्रैल 11, 2008 ने कहा…

यह किताब मैंने शाहजहांपुर में ही पढ़ी थी। करीब दस साल पहले। इसकी पठनीयता और डायलाग के चलते इसे मैंने तीन-चार दिन में दिन-रात मिलाकर पढ़ा था। अब भी कभी-कभी कुछ अंश पढता हूं। आपने बहुत अच्छी तरह इसके बारे में लिखा है। बधाई!

अनूप शुक्ल on अप्रैल 11, 2008 ने कहा…
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
बेनामी ने कहा…

उत्सुकता तो जगा दी है आपने। हम भी पढेंगे, जब भी हाथ लगेगी ये किताब।

राज भाटिय़ा on अप्रैल 12, 2008 ने कहा…

मनीष भाई जब बलोग से दिल भर जाये गा तोपढ ले गे

Batangad on अप्रैल 12, 2008 ने कहा…

बहुत ही अच्छी किताब है। मैंने कई साल पहले पढ़ी थी।

Sanjeet Tripathi on अप्रैल 12, 2008 ने कहा…

भई हमें तो बहुत पसंद आई थी यह किताब, चार साल पहले पढ़ी थी, अब भी अक्सर कई बार कई पन्ने पुनर्पठन कर डालते हैं!

Charu on अप्रैल 15, 2008 ने कहा…

pichle kuch dino se main bhi ye upanyas fir se padh rahi thi aur aaj aapki post dekhi. pehli baar jab ise padha tha to main varsha ke kirdaar se abhibhut ho uthi thi. lekin uske baad jab bhi padha to aksar varsha ki soch se khud ko asahmat paya. mere vichaar se varsha ne har manjil doosron ki bhaavnaon ka anadar karte hue aur swarthi hokar haasil ki. wah zindagi se kabhi santusht nahi rah paayi aur apni aseemit aakanshon ki poorti ke liye usne jeevan ke choote choote sukhon ko andekha kar diya. phir bhi manveeya samvednaon ka accha lekha- jokha hai mujhe chaand chahiye.

Manish Kumar on अप्रैल 17, 2008 ने कहा…

जोशिम, नितिन भाई जरूर पढ़ें

अनूप जी शुक्रिया यादें ताजा करने का..

राज भाई वो अवसर तो आने से रहा

हर्षवर्धन जी और संजीत इसमें शक नहीं कि किताब पठनीय है।

Manish Kumar on अप्रैल 17, 2008 ने कहा…

चारू तुम्हारी बात से मैं सहमत नहीं। वर्षा स्वार्थी नहीं थी, महात्वाकांक्षी जरूर थी। उसके लक्ष्य से विचलित करने के जो पारिवारिक प्रयास हुए उसने उसका डट कर मुकाबला किया। फिर भी जब वो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हुई उसने परिवार की जिम्मेवारियों से कभी मुँह नहीं मोड़ा और अपने छोटे भाई बहनों की हरसंभव मदद की।

जीवन के छोटे सुखों को त्याग ऊपर पहुँचने की आकांक्षा रखने और उसमें सफल रहने वाले बिड़ले ही होते हैं। महान कलाकारों की जिंदगी को पास से देखो तो पाओगी कि उनमें से अधिकांश का व्यक्तिगत जीवन असंतुष्ट ही बीता।

कंचन सिंह चौहान on जून 24, 2008 ने कहा…

बहुत सारे लोगो ने बता रखा है इस उपन्यास के बारे मे...लेकिन मैने भी पढ़ा नही है...! मेरी एक सहेली जब इसे पढ़ रहीं थी तो उन्होने मुझसे कलिगुला के बारे मे पूँछा था ..और मैने कई हिंदी पंडितों से ....धन्यवाद आपको जो आज आपने वो जिज्ञासा दूर कर दी...! तलाश में हूँ मैं भी बुरी तरह....! मौका मिला तो छोड़ूँगी नही..!

पंकज on सितंबर 07, 2008 ने कहा…

चलिए मनीष जी, आपने ये पढ़ा तो सही,
हलाँकि मुझे लगता है , कि आपने इसे किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर पढ़ा है, हो सकता है मेरा अपना विचार हो , या कहीं न कहीं ये उपन्यास मेरे दिल और दिमाग की गहराइयों में कुछ ज्यादा ही उतर गया हो,
फ़िर भी इस उपन्यास को आपके ब्लॉग पर देखकर अच्छा लगा..

हमेशा कि तरह आपका लेखन उत्तम ही रहा.. बधाई ..

इस उपन्यास के कुछ प्रशंसक 'ऑरकुट' के माध्यम से जुड़े हैं... कभी वक्त मिले तो आइये इस गली भी....
http://www.orkut.co.in/Community.aspx?cmm=३८८६१४३४

Manish Kumar on सितंबर 07, 2008 ने कहा…

कंचन जरूर पढ़ें..

पंकज जी एक ही किताब पाठकों पर अलग अलग तासीर छोड़ती है। कभी कभी जिंदगी के अनुभव लेखक की भाषा में लिखे जान पड़ते हैं तो दिल अंदर तक अभिभूत हो जाता है। मुझे ये किताब अच्छी लगी पर जब मैं आशापूर्णा देवी की सुवर्णलता,मन्नू भंडारी की आपका बंटी, धर्मवीर भारती की गुनाहों का देवता जैसी किताबों जो मेरी पसंदीदा पुस्तकें हैं से इसकी तुलना करता हूँ तो इस रचना को उसके समकक्ष नहीं पाता।
इस आरकुट समुदाय पर अवश्य जाऊँगा। शुक्रिया इस जानकारी के लिए

indianrj on दिसंबर 23, 2008 ने कहा…

मैंने ये उपन्यास लगातार (लगभग) बैठकर पढ़ा है और मुझे ये बहुत ही रोचक लगा. एक छोटी जगह की लड़की के संघर्ष की कहानी इस तरह से बुनी गई है कि बीच में छोड़ने का मन ही नहीं होता.

Thoi on सितंबर 28, 2019 ने कहा…

Muj chand chahiye ka Naye vecharik paridrishya k bare na Jan Kari dijiye

Nidhi Saxena on मई 30, 2020 ने कहा…

उण्यास के आखरी 50 पेज 5 साल पहले पढ़ना रह गए गए थे, इस बीच जब भी किताब उठाती हूँ इतने करेक्टर हैं कि कुछ याद ही नहीं आता सब गडमड हो गया है। इन दिनों सोचा है पढ़ ही लिया जाए तो पहले गूगल कर समीक्षा का सहारा लेना उचित लगा कि कुछ यादें ताजा हो....

Nidhi Saxena on मई 30, 2020 ने कहा…

पंकज जी Orkut पर न होने से कैसे पढा जा सकता है?

Manish Kumar on जून 01, 2020 ने कहा…

IndianRj आपको पुस्तक ने अंत तक बाँधे रखा जानकर अच्छा लगा।

Manish Kumar on जून 01, 2020 ने कहा…

निधि समीक्षाएँ तो आपको ऊपरी रूप रेखा ही दे पाएँगी। अगर वक़्त हो तो समीक्षाएं पढ़ने के बाद एक सरसरी नज़र से बाकी के पन्ने पलट लें। एक बार किसी किताब का कुछ हिस्सा पढ़ने से रह जाए तो फिर उसे पूरा करना सच में मुश्किल का काम हो जाता है।

 

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