मंगलवार, अक्तूबर 30, 2007

'एक इंच मुस्कान', राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी का साझा उपन्यास


'एक इंच मुस्कान', राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी का साठ के दशक में लिखा एक साझा उपन्यास है। यूँ तो मन्नू भंडारी मेरी प्रिय लेखिका हैं और उनका लिखा महाभोज और 'आप का बंटी' मेरी पसंदीदा किताबों में हमेशा से रहा है पर जब भी मैंने पुस्तक मेले में इस किताब को उलटा पुलटा, ये मुझे आकृष्ट नहीं कर पाई। पर हाल ही में जब ये किताब मुझे अपने पुस्तकालय में हाथ लगी तो मन्नू जी की वज़ह से इसे पढ़ने का लोभ संवरण नहीं कर सका।

अब पुस्तक पढ़ ली है तो ये कहते मुझे संकोच नहीं कि ये वैसा उपन्यास नहीं जिसे आप एक बार उठा लें तो ख़त्म कर के ही दम लें। दो अलग-अलग लेखन शैली के लेखकों को जोड़ता ये उपन्यास खुद कथा लेखन में रुचि रखने वालों के लिए जरूर बेहद महत्त्व का है, पर आम पाठकों के लिए इसके नीरस हिस्सों को पार कर पाना कभी-कभी काफी दुरूह हो जाता है।

आखिर साथ-साथ लिखने की सोच कहाँ से आई? इस उपन्यास की उत्पत्ति बारे में स्वयं मन्नू भंडारी जी कहती हैं.....

".....यह सच है कि लेखन बहुत ही निजी और व्यक्तिगत होता है. लेकिन “एक इंच मुस्कान” उस दौर में लिखा गया था जब प्रयोगात्मक उपन्यास लिखने का सिलासिला चल रहा था. उस समय एक उपन्यास निकला था ''ग्यारह सपनों का देश'' इस उपन्यास को दस लेखकों ने मिलकर लिखा था. जिसने आरंभ किया था उसी ने समाप्त भी किया. लेकिन यह एक प्रयोग था जो कि पूरी तरह असफल रहा. तब लक्ष्मीचन्द्र जैन ने मुझसे और राजेन्द्र से यह प्रयोग दोबारा करने को कहा हम राज़ी हो गए. मेरा एक उपन्यास तैयार रखा था. राजेंद्र ने कहा क्यों न हम इस उपन्यास को फिर से लिख लें. हांलाकि मेरी भाषा-शैली और नज़ारिया राजेन्द्र से बिलकुल अलग है, लेकिन हमने किया यह कि मैं मुख्य रूप से महिला पात्र पर केंद्रित रही और राजेन्द्र पुरूष पात्र पर....."

पर सबसे आश्चर्य इस बात पर होता है कि इस उपन्यास को पढ़ कर इसके बारे में जो अनुभूतियाँ आपके मन में आती हैं, वही पुस्तक के अंत में दिए गए लेखक और लेखिका के अलग अलग वक्तव्यों में प्रतिध्वनित होती हैं। यानि प्रयोगात्मक तौर पर लिखे इस उपन्यास की कमियों का अंदाजा लेखकगण को भी था। खुद राजेंद्र यादव लिखते हैं

"..मुझे हमेशा मन में एक बोझ सा महसूस होता रहता था कि मेरे चैप्टर सरस नहीं जा रहे हैं जितने मन्नू के। मन्नू के लिखने में प्रवाह और निव्यार्ज आत्मीयता है, और मेरी शैली बहुत सायास और बोझिल है..यह बात कुछ ऍसे कौशल से फ़िजा में भर दी गई कि जहाँ कोई कहता कि......... आप लोगों का उपन्यास ज्ञानोदय में........कि मैं बीच में ही काटकर बोल पड़ता "जी हाँ और उसमें मन्नू के चैप्टर अच्छे जा रहे हैं।..."

मन्नू जी ने भी माना है कि कथानक के गठन और प्रवाह में जगह जगह शिथिलता है, पर वो ये भी कहती हैं कि ऐसे प्रयोगों में इससे अधिक की आशा रखना ही व्यर्थ है।
कथा के शिल्प पर तो खूब टीका-टिप्पणी हो गई पर चलिए असली मुद्दे पर लौटते हैं कि आखिर ये एक इंची मुस्कान है किन लोगों के बारे में ?

पूरा उपन्यास तीन पात्रों के इर्द गिर्द घूमता है। ये कथा है एक साहित्यकार और उसकी मध्यमवर्गीय कामकाजी प्रेमिका की, जिससे नायक आगे चलकर शादी भी कर लेता है। आप सोच रहे होंगे तो फिर परेशानी क्या है, इतनी सीधी सपाट कहानी है। पर तीसरा किरदार ही तो सारी परेशानी का सबब है और उसका चरित्र सबसे जटिल है। वो है आभिजात्य वर्ग से ताल्लुक रखने वाली साहित्यकार की एक प्रशंसिका जिसके चरित्र को मन्नू जी ने आरंभ में बड़ी खूबसूरती से उकेरा है पर आखिर तक ये पकड़ छूटती महसूस होती है।

एक रोचक बात ये भी रही किर पति-पत्नी के रुप में मन्नू भंडारी और राजेंद्र यादव ने जब ये किताब लिखी तो लोगों ने नायक नायिका के किरदार में राजेंद्र जी और मन्नू जी का अक़्स तलाशना शुरु कर दिया। आज जबकि उनके बीच कोई संबंध नहीं रहा, ये शक शायद और पुख्ता हो। पर यहाँ ये बताना लाज़िमी होगा कि मन्नू जी ने पुस्तक के अंत में अपने वक्तव्य में इसका खंडन किया है।

इस उपन्यास में बहुत सारी घटनाएँ नहीं हैं ना ही ज्यादा पात्र हैं, अगर है तो अपनी-अपनी जिंदगी में घुलते तीन इंसानों की मनोवैज्ञानिक स्थितियों का आकलन । प्रेमी को पति के रूप में पाकर भी छली जाने का अहसास ले के घुट घुट के जीती रंजना हो, या कुछ सार्थक ना लिख पाने और कमाऊ पत्नी के सानिध्य में अपने आप को हीन और कुंठित महसूस करना वाला अमर , या फ़िर अपनी जिंदगी के कड़वे सच से दूर भागती, पर दूसरों को मार्गदर्शन देती अमला ....सभी जीवन के इस चक्रव्यूह में पल पल संघर्ष करते दिखते हैं। इन चरित्रों की एक छोटी सी झलक आप उपन्यास अंश के तौर पर आप यहाँ पढ़ सकते हैं। उपन्यास ने कुछ ऐसे विषयों को छुआ है जिस के पक्ष विपक्ष में सार्थक बहस हो सकती है। मसलन...


  1. क्या कोई कलाकार अपनी कला से बिना कोई समझौता किए अपनी पत्नी और परिवार को समय दे सकता है? और अगर नहीं तो फिर क्या ऍसी हालत में उसे दाम्पत्य सूत्र में बँधने का हक़ है?

  2. क्या हमपेशा कलाकार सिर्फ़ इसी वज़ह से सफल गृहस्थ नहीं हो सकते कि दोनों कला सृजन की जैसी रचना प्रक्रिया से परिचित होते हैं? इस तर्क के समर्थन में पुस्तक के इस अंश को लें..
    "...इसलिए उनमें, एक को दूसरे के प्रति ना आस्था होती है, ना श्रृद्धा। कला सृजन के अंतरसंघर्ष के प्रति दोनों ही लापरवाह और बेलिहाज हो जाते हैं। एक को दूसरे की रचना प्रक्रिया में ना तो कुछ रहस्यमय लगता है न श्रमसाध्य.. "

  3. कहानी लेखन के लिए क्या ये जरूरी है कि कथाकार अपने पात्रों में इस कदर एकाकार हो जाए कि वो उनके हिसाब से कहानी आगे बढ़ाता रहे ? दूसरे शब्दों में क्या लेखन में कथा के पात्र लेखक पर हावी होने चाहिए या पात्रों के सुख-दुख से इतर वो सोच सर्वोपरि होनी चाहिए जिसके आधार पर लेखक ने कहानी का प्लॉट रचा है ?

एक पाठक के रूप में मैं इन प्रश्नों के सीधे सपाट उत्तर सोच पाने में अभी तक सफल नहीं हो पाया हूँ पर जानना चाहूँगा कि इस बारे में आपका क्या मत है?

पुस्तक के बारे में :
ये किताब भारत में राजपाल एंड सन्ज द्वारा प्रकाशित की गई है। भारत के बाहर यहाँ से आप इसे खरीद सकते हैं
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10 टिप्पणियाँ:

Ashish Maharishi on अक्तूबर 30, 2007 ने कहा…

thnak u so much for this imp book

Pratyaksha on अक्तूबर 30, 2007 ने कहा…

बहुत पहले पढ़ा था । अब फिर से उलटते पलटते हैं ।

Udan Tashtari on अक्तूबर 30, 2007 ने कहा…

मैने तो पढ़ा नहीं. रोचक समीक्षा के बावजूद नहीं लगता कि जल्द पढ़ूंगा. :)

बेनामी ने कहा…

मैं तो देख ही नहीं रहा उपन्यास की ओर जी, बहुत सी किताबें भरी पड़ी हैं जो अभी पिछले महीने खरीदी हैं(और तनख्वाह कहाँ निकल जाती है इस पर मैं अचरज करता हूँ फिर बाद में), उनमें से एक भी नहीं निपटी है। अपना तो साल भर का कोटा पूरा हो गया है! ;)

Yunus Khan on अक्तूबर 31, 2007 ने कहा…

पुस्‍तक काफी पहले पढ़ने की कोशिश की थी । सुहाई नहीं । शायद बीच में ही छोड़ दी थी । हां मन्‍नू भंडारी का लेखन वाक़ई कमाल का है । मुझे राजेंद्र यादव की स्‍वतंत्र रूप से लिखी पुस्‍तकें भी पसंद हैं । और वो संकलन भी जिसमें राजेंद्र यादव, मन्‍नू भंडारी, कमलेश्‍वर, मोहन राकेश वगैरह सभी मित्रों ने एक दूसरे के बारे में लिखा है ।

अनूप शुक्ल on अक्तूबर 31, 2007 ने कहा…

बहुत अच्छा लिखा किताब के बारे में।

Manish Kumar on नवंबर 01, 2007 ने कहा…

समीर जी सही फै़सला है आपका, इसीलिए पाठकों को चेताने के लिए मैंने इसके जगह जगह नीरस और अझेल होने का उल्लेख किया था।

यूनुस भाई मैंने राजेंद्र यादव को ज्यादा तो नहीं पढ़ा पर उनका लेखन मुझे रुचिकर नहीं लगता।

अनूप जी, आशीष शुक्रिया !

अमित बाइक दौड़ाने से फुर्सत मिले तब तो उपन्यास पढ़ने का वक्र्त मिले :)

प्रत्यक्षा जी जरूर देखिए..वैसे किताब मेरी आशा के अनुरूप तो नहीं निकली।

rachana on नवंबर 02, 2007 ने कहा…

किताब और प्रश्नों के बारे मे तो मुझे कुछ नही पता लेकिन आपकी समीक्षाओँ से ये समझ मे आता है कि किताबें हमारी सोच और समझ को नये आयाम देती हैं..

कंचन सिंह चौहान on नवंबर 09, 2007 ने कहा…

किताब के विषय में तो कोई खास रुचि नही रह गई, लेकिन आपके प्रश्न एक नया प्रश्न ज़रूर छोड़ गये मेरे मन में, अभी तक तो यही सोचती थी कि यदि आप कलाकार हैं और अपनी कला को मारना भी नही चाहते है, तो सीधा सा फंडा है कि ऐसा जीवनसाथी चुनिये जो आप जितना ही समर्पित हो आपकी कला के प्रति, लेकिन ये तो सोचा ही नही कि
"उनमें, एक को दूसरे के प्रति ना आस्था होती है, ना श्रृद्धा। कला सृजन के अंतरसंघर्ष के प्रति दोनों ही लापरवाह और बेलिहाज हो जाते हैं। एक को दूसरे की रचना प्रक्रिया में ना तो कुछ रहस्यमय लगता है न श्रमसाध्य.. "
बात तो सच है, नये सिरे से विचार करना पड़ेगा

बेनामी ने कहा…

कोई भी उपन्यास या कहानी हमें तभी रुचिकर लगती है जब उसमें अपनापन पाते है। उस काव्य में हमारे निजी जीवन की साम्यता हो तो और भी रुचिकर लगेगी।

 

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