शनिवार, अगस्त 19, 2006

मन्नू भंडारी की अनुपम कृति 'महाभोज'

मन्नू भंडारी के इस उपन्यास को पहली बार 1986 में पढ़ा था । पिछले हफ्ते राँची के ठंडे माहौल को छोड़ कर पटना जाना पड़ा । वहाँ की चिपचिपाती गर्मी से निजात पाने के लिये इधर उधर निरुद्देश्य भटक रहा था तो सहसा अलमारी से ये पुस्तक झांकती मिली ।


कहानी तो अब बिलकुल याद नहीं थी पर ये जरूर याद था कि पहली बार पढ़ते वक्त ये किताब मन को बहुत भायी थी। डॉयरी के पन्नों में इस किताब के नाम के आगे मैंने तीन स्टार जड़े थे । और बाद में जब भंडारी जी का लिखा हुआ उपन्यास 'आप का बंटी' पढ़ा था तब से मन्नू जी मेरी चहेती लेखिका बन गईं थीं।

200 पृष्ठों से भी कम की इस पुस्तक को दुबारा पढ़ने में ज्यादा समय नहीं लगा और इस बात की खुशी भी हुई कि इस किताब को फिर से पढ़ने का मौका मिल पाया । तो आइए ले चलें आपको इस उपन्यास के कथानक की ओर ! ये कहानी है विकास के हाशिये से बाहर खड़े एक गाँव सरोहा की ! एक ऐसा गाँव जहाँ बाहुल्य तो है हरिजनों का, पर तूती बोलती है जाटों की । यहीं मौत होती है एक पढ़े लिखे हरिजन नवयुवक बिसू की । वैसे तो बिसू एक सामान्य नागरिक की तरह गुमनामी की मौत मरा होता, पर परम गौरवशाली भारतीय लोकतंत्र की एक परम्परा ने ऐसा होने नहीं दिया। बिसू की मौत के कुछ दिनों पहले ही सरोहा में उपचुनाव की घोषणा हो चुकी थी । और जैसा की होता है विरोधी दल हाथ में आए इस सुनहरे मौके को कैसे जाने देते ।
कहानी आगे बढ़ती है...शुरु होती है बिसू की मौत की तहकीकात...

या यूँ कहें कि एक आम से शख्स के करीबियों से किया गया क्रूर मजाक !
राजनीतिक रस्साकशी के इस माहौल में इस दुखद मौत पर सारे पक्ष अपनी अपनी गोटियाँ सेंकते नजर आते हैं। 
चाहे वो मुख्यमंत्री हों जो जनता का ध्यान बिसू की हत्या से हटाने के लिए, लोक लुभावन योजना का चारा डालता हो...
या विरोधी जो कत्ल के राजनीतिक लाभ के लिये जातिगत वैमनस्य को बढ़ाने से नहीं चूकते...
या आला अफसर जो केस की तह तक जाने वालों को प्रताड़ित कर अपनी पदोन्नति के रास्ते साफ करते चले जाते हैं...
या फिर मीडिया जो कागज के परमिट बढ़बाने की चाह में रातों रात सरकार की नीतियों के मुखर प्रशंसक बन जाते हैं...

लोकतंत्र के तले एक ऍसा घृणित राजनीतिक चक्र जिसमें एक हत्या , आत्महत्या बताई जाती है और फिर कुछ और .......
खैर वो बताना नहीं बताना ज्यादा मायने नहीं रखता उसे उपन्यास में ही पढ़ लीजिएगा ।

पर गौर करने वाली बात ये है कि 1979  में लिखे इस उपन्यास को पढ़कर नहीं लगता कि हम 30 वर्ष पहले की स्थितियों से गुजर रहे हैं। उपन्यास के हर एक चरित्र को आज भी हम सब अपने इर्द-गिर्द घूमता महसूस कर सकते हैं। एक बेहद सशक्त उपन्यास जो हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली की खामियों और निरंतर घटते राजनीतिक मूल्यों की झलक दिखलाकर मन को कचोटता हुआ सा जाता है ।
Related Posts with Thumbnails

5 टिप्पणियाँ:

ई-छाया on अगस्त 19, 2006 ने कहा…

भारत जाऊंगा तो ढूढूंगा और पढूंगा।

rachana on अगस्त 20, 2006 ने कहा…

कई पुराने हिन्दी लेखको की कृतियाँ आज भी उतनी ही सामयिक लगती हैँ,,जितनी उस जमाने मे थी. किसी दिन इस पुस्तक को पढना चाहुँगी.

Pratyaksha on अगस्त 21, 2006 ने कहा…

आपने इस किताब को दोबारा पढने की इच्छा जगा दी ।
आपका बँटी तब पढा था जब स्कूल में थी , धर्मयुग में शायद धारावाहिक आता था ।

प्रेमलता पांडे on अगस्त 22, 2006 ने कहा…

बहुत बढ़िया प्रस्तुति है।

Manish Kumar on अगस्त 24, 2006 ने कहा…

छाया और रचना जी जरूर पढ़ें

प्रत्यक्षा मैंने ये दोनों किताबें स्कूल में ही पढ़ी थीं। इसकी कहानी तो भूल गया था पर आप का बंटी तो मुझे मन्नू भंडारी की सबसे अच्छी रचना लगी थी ।

प्रेमलता जी शुक्रिया !

 

मेरी पसंदीदा किताबें...

सुवर्णलता
Freedom at Midnight
Aapka Bunti
Madhushala
कसप Kasap
Great Expectations
उर्दू की आख़िरी किताब
Shatranj Ke Khiladi
Bakul Katha
Raag Darbari
English, August: An Indian Story
Five Point Someone: What Not to Do at IIT
Mitro Marjani
Jharokhe
Mailaa Aanchal
Mrs Craddock
Mahabhoj
मुझे चाँद चाहिए Mujhe Chand Chahiye
Lolita
The Pakistani Bride: A Novel


Manish Kumar's favorite books »

स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

एक शाम मेरे नाम Copyright © 2009 Designed by Bie