रविवार, अप्रैल 30, 2006

क्षमा करना जीजी !

उत्तर भारत में शादी के बाद बडी बहन को जीजी कहते हैं । नरेन्द्र कोहली के इस उपन्यास की मुख्य पात्र जीजी ही हैं । पाँच भाईयों के साथ निम्न मध्यम वर्गीय परिवार में पली बढ़ी जीजी को वो सभी कष्ट झेलने पड़े जो इस परिवेश में आगे बढ़ने का सपना देखने वाली नारी के लिए आम हैं । शादी के पहले तक जीजी ने निस्वार्थ भाव से अपने सारे भाईयों को जो स्नेह और मार्गदर्शन दिया क्या वे वक्त पड़ने पर उसका ‌अंशमात्र भी चुका पाये ?

उपन्यास का कथानक फ्लैशबैक से शुरू होता है जब जीजी अपना आखिरी वक्त बिताने अपने छोटे भाई विनीत के यहाँ आती हैं! और वहीं से शुरू होती है विनीत की आत्म विवेचना कि जीजी की इस हालत के लिये क्या सारे भाई दोषी नहीं थे ?

" वह अपने बौनेपन से परिचित था । दिखने को जो भी दिखे, किन्तु जानता था कि भीतर से वह कितना तुच्छ, कितना छोटा है । जीजी के बड़प्पन को भी वो जानता था...पर जीजी के स्वाभिमान का ये रूप उसके लिए अपरिचित ही था कि वे उसके द्वार पे आकर, अपना स्नेह उसे देंगी ।....

.....उसे लगा , कपड़े के नीचे मुँह ढ़ांके जीजी मुस्कुरा रही हैं,.....अब पाखण्ड मत करो ज्यादा । तुम्हारे द्वार पर जितना लेने आई हूँ उतना ही दे सको तो बहुत है ।...सारी उम्र तुम लोग एक दूसरे का मुँह ही ताकते रहे । अब ना किसी का मुँह ताको ना किसी की राह ! अपने भरोसे, अपनी इच्छा से,जो कर सकते हो वही करो। अब बहुत लम्बी चौड़ी आवश्यकताएँ नहीं है. मेरी।.....बस एक चिता.....।"

एक लघु उपन्यास जिसमें लेखक अपनी बात न केवल सहज भाषा एवम् रोचक ढ़ंग से रखने में पूर्ण रूप से सफल हुआ है बल्कि कुछ अनुत्तरित प्रश्न हमारे मानस पटल पर रखता भी गया है ।

  • किस तरह से शादी हो जाने के बाद हमारी प्राथमिकताएँ बदल जाती हैँ?
  • नयी नवेली परिणिता का प्रेम पाने के लिये क्यूँ हम पुराने रिश्तों एवम् जिम्मेदारियों के साथ न्याय नहीं कर पाते?
ये ऐसे प्रश्न हैं जो आज भी भारतीय पारिवारिक परिवेश के लिये उतने ही प्रासंगिक हैं जितने आज से कई दशक पूर्व थे ।
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8 टिप्पणियाँ:

उन्मुक्त on मई 01, 2006 ने कहा…

अच्छी समीक्षा है|
क्या अच्छा हो कि एक स्थायी स्तम्भ नारद में खुले जिसमें सारी समिक्षाये जुड़ी रहें जैसा कि कउछ अनुगूंज में होता है|

Manish Kumar on मई 03, 2006 ने कहा…

शुक्रिया उनमुक्त जी ! जानकर खुशी हुई कि ये समीक्षा आपको रुचिकर लगी ।

अनुनाद सिंह on मई 04, 2006 ने कहा…

मनीष जी, आपकी पसन्द अत्यन्त उत्कृष्ट है |ठीक ही कहते हैं कि हीरे को कोई जौहरी ही पहचान सकता है | अभी तक जो कुछ आपने परोसा है, विशिष्ट है | आपकी भाषा भी सरल और सौम्य है, जिसको पढने में विशेष आनन्द मिलता है |

Manish Kumar on मई 07, 2006 ने कहा…

अनुनाद जी तारीफ का शुक्रिया ! जानकर खुशी हुई कि मेरा लिखा आपको पसंद आया ।

Banwari Lal Sharma on मई 16, 2006 ने कहा…

जैसा मैंने आपके अंग्रेजी वाले ब्लोग मैं लिखा कि आप काफी अच्छा लिख लेते हैं. आपकी हिंदी भी काफी अच्छी है. मुझे आपका ये लेख बहुत अच्छा लगा. धन्यवाद.

आपका लेख फायरफौक्स मैं सही से नहीं दिख रहा है. इंटर्नेट ऐक्सप्लोरर मैं ठीक दिख रहा है.

Manish Kumar on मई 21, 2006 ने कहा…

बनवारी हाँ वो text alignment की समस्या है ना firefox में इसी वजह से में ठीक नहीं दिखता !
आपकी पसंद और इन उपन्यासों के बारे में विचार पढ़कर मुझे भी खुशी हुई कयोंकि आपने भी बखूबी इन चरित्रों को महसूस किया है । आशा है इस चिट्ठा जगत पर आपसे मुलाकात होती रहेगी ।

बेनामी ने कहा…

KYA VASTAV ME AAJ KE SAMAJ KA VYKTI
APANE RISTO KO NIBHA PA RAHA HAI? YAH AJEEB VIDAMBANA HAI ,VYKTI NAEE VADHOO KE AANE KE BAAD PURANEE RISTO KO BHOOLAANE LAGATA HAI!PARANTOO KYA KISEE NE ISAKA KARAN JANANE KA PRYAS KIYA YA SWYA KE ANDAR JHANKA-KAR DEKHA? SHATAD KUCHHA VIRALE HI ISKA JAWAB HA ME DE SAKEGE!PARANTU JAWAB MATRA SE KUCHHA NAHI HONE WALA HAI,LOGO KO KHUD HEE VICHAR KARANA HOGA,& JAHA TAK MAI SAMAJH PATA HAI ,AISE SAMAY ME ESS PRAKAR KI RACHANAEE BHAV-VIBHOR KARAKE KARTVYA BODH KARATEE HAI,ASTOO MAI LEKHAK KO APANEE TARAF SE KOTISHAH DHANYAWAD DETA HOO.

Manish Kumar on नवंबर 12, 2006 ने कहा…

विनोद राहुल जी बिलकुल सटीक बात कही है आपने ! लेखक ने भी इसी ओर हम सब का ध्यान खींचना चाहा है ।
आपकी इस टिप्पणी पर अभी ध्यान गया देर से जवाब देने के लिये माफी चाहता हूँ ।

 

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