बुधवार, अगस्त 23, 2006

धर्मवीर भारती की मर्मस्पर्शी रचना : 'गुनाहों का देवता '

कौन सा गुनाह ? कैसा गुनाह ?
किसी से जिंदगी भर स्नेह रखने का...
और वो स्नेह अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचने लगे तो उसका त्याग करने का...
है ना अजीब बात !
पर यही तो किया चंदर ने अपनी सुधा के साथ ।
इस भुलावे में कि दुनिया प्यार की ऐसी पवित्रता के गीत गाएगी...
प्यार भी कैसा...

"सुधा घर भर में अल्हड़ पुरवाई की तरह तोड़-फोड़ मचाने वाली सुधा, चंदर की आँख के एक इशारे से सुबह की नसीम की तरह शांत हो जाती थी। कब और क्यूँ उसने चंदर के इशारों का यह मौन अनुशासन स्वीकार कर लिया था, ये उसे खुद भी मालूम नहीं था और ये सब इतने स्वाभाविक ढंग से इतना अपने आप होता गया कि कोई इस प्रक्रिया से वाकिफ नहीं था.......... दोनों का एक दूसरे के प्रति अधिकार इतना स्वाभाविक था जैसे शरद की पवित्रता या सुबह की रोशनी.... "
और अपनी इस सुधा को ना चाहते हुये भी उसने उस राह में झोंक दिया जिस पर वो कभी नहीं चलना चाहती थी । सुधा तो चुपचाप दुखी मन से ही सही उस राह पर चल पड़ी और चंदर...

क्या चंदर का बलिदान उसे देवता बना पाया?

जो समाज के सामने अपने प्यार को एक आदर्श, एक मिसाल साबित करना चाहता था वो अपने खुद के अन्तर्मन से ना जीत सका । और जब अपने आपको खुद से हारता पाया तो अपना सारा गुस्सा, सारी कुंठा उन पे निकाली जिनके स्नेह और प्रेम के बल पर वो अपने व्यक्तित्व की ऊँचाईयों तक पहुँच पाया था।

तो क्या चंदर को अपनी भूल का अहसास हुआ ?
क्या वो समझ पाया कि कहाँ उसका जीवन दर्शन उसे धोखा दे गया?

पर ये भी तो सच है ना कि जिंदगी में बहुत सी बातें वक्त रहते समझ नहीं आतीं । और जब समझ आती हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
चंदर हम सब से अलग तो नहीं !


चंदर ने यही गलती की कि अपने प्यार को यथार्थ के धरातल या जमीनी हकीकत से ऊपर कर के देखा, एक आदर्श प्रेम की अवधारणा को लेकर जो भीतर से खोखली साबित हुई। अपने दुख को पी कर वो जीवन में कुछ कर पाता तो भी कुछ बात थी। पर वो तो बुरी तरह कुंठित हो गया अपने आप से अपने दोस्तों से....सुधा उसे इस कुंठा से निकाल तो सकी पर किस कीमत पर ?


बहुत आश्चर्य होता है कि क्यूँ हम नहीं समझ पाते कि कभी कभी मामूली शख्स बन के जीने में ही सबसे बड़ी उपलब्धि है ! क्या हम वही बन के नहीं रह सकते जो हम सच्ची में हैं। अपने को दूसरों की नजर में ऊँचा साबित करने के लिये अपने आप को छलाबा देना कहाँ तक सही है?

किताब के बारे में
धर्मवीर भारती जी की गुनाहों का देवता सबसे पहले १९५९ में प्रकाशित हुई । हिन्दी साहित्य के दिग्गज इस उपन्यास को पात्रों के चरित्र -चित्रण के लिहाज से हिन्दी में लिखे हुये सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में से एक मानते हैं । अब तक इस उपन्यास के तीस से भी ज्यादा संस्करण छापे जा चुके हें और ये सिलसिला बदस्तूर जारी है ।

पिछले साल जून में इस उपन्यास को पढ़ा था और तभी ये पोस्ट अपने रोमन हिंदी चिट्ठे पर प्रकाशित की थी । जैसी की उम्मीद थी इसके कथानक ने मुझे हिला कर रख दिया था । सुधा की मौत को पचा पाना कितना दुष्कर था ये इस कथानक को पढ़ने वाला भली - भांति जानता है । और ऐसा अनुभव अकेला मेरा हो ऐसी बात नहीं , इस
पोस्ट पर मिली प्रतिक्रियाएँ इस बात की गवाह हैं कि पढ़ने वाला सुधा, चंदर, पम्मी, विनती के चरित्र से इस कदर जुड़ जाता है कि उनके कष्ट को अपने अंदर ही होता महसूस करता है।

खुद धर्मवीर भारती जी कहते है कि इस उपन्यास को लिखते समय उन्होंने वैसी भावनाएँ महसूस कीं जैसी कोई घोर विपदा में पूरी श्रृद्धा के साथ प्रार्थना करने में महसूस करता है .. उन्हें ऍसा लगा की वो प्रार्थना उनके हृदय में समाहित है और खुद बा खुद उसे वो दोहरा रहे हों ।

श्रेणी :
किताबें बोलती हैं में प्रेषित
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24 टिप्पणियाँ:

अनूप शुक्ल on अगस्त 24, 2006 ने कहा…

'गुनाहों का देवता' एक खास उम्र के लोगों को पागल बना देने वाली किताब है। आपने अच्छा
लिखा।

Udan Tashtari on अगस्त 24, 2006 ने कहा…

बहुत दिनों पहले पढ़ी थी..याद एकदम ताजा है.और फिर आपने और ताजा करा दी.

-समीर लाल

उन्मुक्त on अगस्त 24, 2006 ने कहा…

कई साल पहले इस पर एक पिक्चर बननी शुरू की गयी, एक था चन्दर एक थी सुधा, अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी थे पर पूरी नहीं हो पायी

ई-छाया on अगस्त 24, 2006 ने कहा…

मैने भी कई सालों पहले इस पुस्तक को पढा था। एक बार शुरू करने के बाद समाप्त करने के बाद ही दम लिया था।
कथानक कई दिनों तक दिमाग पर छाया रहा था।
फिर से याद दिलाने के लिये धन्यवाद।

Pratyaksha on अगस्त 24, 2006 ने कहा…

वर्षों पहले पढी थी पर मुझे मज़ा नहीं आया था । शायद मेरी समझ में कमी रही होगी :-(

बेनामी ने कहा…

अनूप भाई से सहमत हूं . 'गुनाहों का देवता' पढ़ना युवावस्था की ओर बढ़ते सभी किशोरों के लिये अभूतपूर्व अनुभव है . हम सब, जिन्होंने इसे पढ़ा है एक खास काल-खंड में और एक खास उम्र में वे इसके इंद्रजाल के असर में रहे हैं .और इस उपन्यास के माध्यम से अपने भीतर की कुछ जानी और कुछ अनजानी भावनाओं को समझने का भी प्रयास किया है .पर अन्ततः 'गुनाहों का देवता'
के चन्दर और सुधा की त्रासदी प्यार की नहीं बल्कि सच्चे प्यार के नकार की त्रासदी है .शायद इसीलिए एक खास उम्र के बाद -- ज्ञान और तर्क का 'वर्जित सेब' खा लेने के बाद यह उपन्यास वैसा प्रभाव नहीं छोड़ता . पर एक खास उम्र वालों के लिए तो यह उपन्यास हमेशा ऐसा ही जादू बिखेरता रहेगा और उनको भी अपने 'मैजिकल स्पैल' में बांधे रखेगा जिनमें किशोरावस्था लंबे समय के लिए ठहर गई है .

sur on अगस्त 24, 2006 ने कहा…

करीब दो साल पहले पढ़ी थी. काफी सुना था पुस्तक के बारे में. गुनाहों का देवता शीर्षक काफी सार्थक लगा था. जिस सच्चे प्यार का त्याग करके इंसान महानता की मिसाल कायम करता है, देवता बनता है, उसे महानता को बनाए रखना आसान नहीं. असली परीक्षा बाद में ही होती है. एक बार कठोर होकर फैसला लेना आसान है. यही चंदर के साथ भी हुआ.

अनूप भार्गव on अगस्त 25, 2006 ने कहा…

अपनें कौलेज के दिनों में पढी थी यह किताब और सचमुच दीवाना सा बना दिया था । कई बार पढी और हर बार आंखों को नम होनें से बचानें के लिये अपनें आप से लड़ना पड़ा ।
अब बरसों के बाद प्रियंकर जी की इस बात मे भी कुछ सार लगता है कि :
"ज्ञान और तर्क का 'वर्जित सेब' खा लेने के बाद यह उपन्यास वैसा प्रभाव नहीं छोड़ता"
कई बार सवाल उठता है कि ऐसी महानता और आदर्श भी क्या जिस से किसी को भी लाभ न हुआ हो (और सब को दुख ही मिला हो) ?
उन्मुक्त जी नें जिस फ़िल्म का ज़िक्र किया वह बन तो न पाई लेकिन लगता है कि जैसे भारती जी नें अमिताभ बच्चन को 'चन्दर' और जया जी को 'सुधा' मान कर ही उपन्यास लिखा हो । व्यक्तित्व और रूप रंग में इतनी समानता 'आश्चर्यचकित' कर देती है ।

बेनामी ने कहा…

एक हम ही है जो इस किताब को पढ़े नही है? इतनी अच्छी प्रस्तुती, इतने सारे टिप्पणी (इत-उत) और पागल बनाने के बारे मे तारीफ सुन कर तो लगता है पढ़ना ही पडेगा। :)

चलो, डाल दिया अपने list मे।

Manish Kumar on अगस्त 29, 2006 ने कहा…

मेरी इस प्रविष्टि पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने और उसे सराहने के लिये अनूप जी, छाया और समीर जी आप सबको धन्यवाद !

प्रत्यक्षा आपने ये नहीं बताया कि भारती जी की लेखन शैली ने आपको निराश किया, या फिर चंदर और सुधा के चरित्र ने ! मेरी समझ से बाद वाली बात ही रही होगी ।

प्रियंकर ,अनूप भार्गव और सुर स्वागत हे आप सब का इस ब्लॉग पर । आप सबने जो विचार व्यक्त किया है उससे मैं पूर्णतः सहमत हूँ ।

सिन्धु जरूर पढ़ना ये किताब पर याद रहे पागल मत बनना :)

बेनामी ने कहा…

Sorry i disagree
waise bhi agar sab log agree hi karein to kya faayeda
I HATED the book
maybe hate is a strong word to use for it but then again so is 'love'
I have no respect for any of the characters and i feel blessed to have 'escaped' the ara where such spineless, masochistic idea of romance was in fashion.
Give me the honest rajendra yadav and manohar shyam joshi, hard hitting krishan chander or krishan baldev vaid anyday, keep me away from dharmveer bharti...

drguptasn on फ़रवरी 03, 2007 ने कहा…

i have read this book 20 yrs back.it is a exaple of sacrifice.

Yunus Khan on अप्रैल 23, 2007 ने कहा…

प्रिय भाई, आपके चिट्ठे में गुनाहों का देवता वाली पोस्‍ट जरा देर से ही पढ़ी । अपने मित्र और चित्रकार ध्रुव वानखेड़े की एक बात याद आ गयी । यायावर और खब्‍ती ध्रुव कहते हैं कि इस पुस्‍तक को अलग अलग उम्र में पढ़ना चाहिये ।

सोलह की उम्र में आप एक ही बार में पूरी पढ़ जायेंगे ।
छब्‍बीस की उम्र में किसी तरह खत्‍म कर पायेंगे । छत्‍तीस की उम्र में शायद आधी ही पढ़ पायें । और छियालीस की उम्र में दो पन्‍नों से ज्‍यादा नहीं पढ़ पायेंगे ।
ध्रुव की ये स्‍थापना उन दिनों की है जब हम चाय की दुकान पर लंबी लंबी बहसें करते थे, उनका कहना है कि ये पुस्‍तक काग़जी प्रेम की अनोखी दास्‍तान है । क्‍या ध्रुव ठहरे हुए पानी में कंकर मार रहे हैं ।

Manish Kumar on अप्रैल 23, 2007 ने कहा…

यूनुस भाई उम्र के साथ भावनाएँ कम ज्यादा प्रबल हो सकती हैं ये तो सच है । अपनी बात कहूँ तो मैंने ये उपन्यास ३० के बाद पढ़ा है फिर भी उपन्यास खत्म होने में समय नहीं लगा । अब इस आधार पर आपके मित्र मेरी उम्र का आधा घटा दें तो क्या कहने !

वैसे भी यह कथा १९६० में लिखी गई है । और उस वक्त या उसके बाद के समाज में भी ऐसे चरित्रों को देख पाना और उनसे जोड़ पाना एक छोटे शहर के वासी के लिए कठिन नहीं है । इसलिए ऐसे प्रेम को कागजी कहना न्यायोचित नहीं होगा । वैसे भी जिस करीने से भारती जी ने चंदर और सुधा का चरित्र गढ़ा है वो यही संकेत देता है कि लेखक ने अपनी या अपने इर्द गिर्द की जिंदगी में ऐसी जिंदगियों को नजदीक से महसूस किया है।

कंचन सिंह चौहान on जून 26, 2007 ने कहा…

ठीक‍ ठीक याद तो नही आ रहा लेकिन २२ नही तो २३ वर्ष की रही हूँगी मैं जब कि मुझे इस पुस्तक के विषय मे किसी स्वजन ने बताया जो कि मुझसे १ वर्ष छोटा होने के कारण २१ अथवा २२ वर्ष का होगा | बताने वाला ऐसा नही था कि गंभीर प्रकृति का ना हो, परंतु इतने उग्र स्वभाव का था कि मुझे लगा कि अवश्य ही ये उपन्यास किसी लाखन सिंह या मलखान सिंह की दयालुता पर लिखा गया होगा और मैने उपन्यास को गंभीरता से लिया ही नही..........! यहाँ तक कि मुझे उपन्यास का शीर्षक तक नही याद था! वक्त के साथ कई परिवर्तन हुए, मैं कानपुर से आंध्रा और आंध्रा से लखनऊ आ गई | उपन्यास का उल्लेख करने वाला व्यक्ति इतनी दूर चला गया जहाँ चिट्ठियाँ भी नही पहुँचती | अब मैं २८ वर्ष की थी, जब एक दिन कार्यालय के लिये हिंदी पुस्तकें खरीदते समय, ये पुस्तक हाथ मे उठाई तो विक्रेता जो कि आने जाने के कारण परिचित हो गया था, ने जिद कर के दे दी कि बड़ी प्रसिद्ध कृति है मैम आपको अवश्य पसंद आयेगी | किताब पढ़ी.... कवि हृदय, उस पर नारी मन, उस पर इतनी भावुक रचना, तो आँसुओं का सैलाब तो स्वाभाविक ही था...! बहुत दिनों तक मैं इस रचना के प्रभाव से मुक्त नही हो पाई... जो मिलता उससे ही चर्चा कर बैठती | ऐसे में ही एक दिन चर्चा की पूर्व में उल्लिखित व्यक्ति के रिश्तेदार से.... और तब उसने चौंकते हुए कहा कि अरे ये किताब तो भैया को भी बहुत पसंद थी उन्होने बताया नही आपको.....! जब पढ़ रहे थे तो बार बार कह रहे थे कि जाते ही बताऊँगा, उन्हे जरूर पसंद आयेगी | और मेरे सामने वो दिन घूम गया जब मुझसे आते ही इस रचना की चर्चा की गई थी | आँखें तो उसी समय भीग गई थी, मन आज तक भीगा हुआ है |
उम्र की चर्चा विशेषकर इसलिये की क्योंकि मुझे बहुत अच्छी तरह समझने वाले को जितना विश्वास २३ २३ वर्ष में था कि मुझे रचना पसंद ही आयेगी उतना ही २८ वर्ष की अवस्था में परिचित दुकानदार को | इसके ठीक २ साल बाद मैने ये मैने ये रचना अपनी एक सखी को पढ़ने को दी जो कि मुझसे ४ साल बड़ी हैं और उस समय लगभग ३४ वर्ष की होंगी, वो महीनों इसके प्रभाव मे रहीं |
तो मै बिना किसी का विरोध किये कहना चाहती हू कि बात उम्र की नही, बात भावनाओ कि है..... किसी भी उम्र मे हम कितना जुड़ पाते है भावनात्मक रूप से किसी रचना या भाव से बात सिर्फ इसपे निर्भर करती है शायद.....! या फिर ग्यान और तर्क का वर्जित फल चखने का अवसर कुछ लोगों को उम्र भर नही मिल पाता..................!ठीक‍ ठीक याद तो नही आ रहा लेकिन २२ नही तो २३ वर्ष की रही हूँगी मैं जब कि मुझे इस पुस्तक के विषय मे किसी स्वजन ने बताया जो कि मुझसे १ वर्ष छोटा होने के कारण २१ अथवा २२ वर्ष का होगा | बताने वाला ऐसा नही था कि गंभीर प्रकृति का ना हो, परंतु इतने उग्र स्वभाव का था कि मुझे लगा कि अवश्य ही ये उपन्यास किसी लाखन सिंह या मलखान सिंह की दयालुता पर लिखा गया होगा और मैने उपन्यास को गंभीरता से लिया ही नही..........! यहाँ तक कि मुझे उपन्यास का शीर्षक तक नही याद था! वक्त के साथ कई परिवर्तन हुए, मैं कानपुर से आंध्रा और आंध्रा से लखनऊ आ गई | उपन्यास का उल्लेख करने वाला व्यक्ति इतनी दूर चला गया जहाँ चिट्ठियाँ भी नही पहुँचती | अब मैं २८ वर्ष की थी, जब एक दिन कार्यालय के लिये हिंदी पुस्तकें खरीदते समय, ये पुस्तक हाथ मे उठाई तो विक्रेता जो कि आने जाने के कारण परिचित हो गया था, ने जिद कर के दे दी कि बड़ी प्रसिद्ध कृति है मैम आपको अवश्य पसंद आयेगी | किताब पढ़ी.... कवि हृदय, उस पर नारी मन, उस पर इतनी भावुक रचना, तो आँसुओं का सैलाब तो स्वाभाविक ही था...! बहुत दिनों तक मैं इस रचना के प्रभाव से मुक्त नही हो पाई... जो मिलता उससे ही चर्चा कर बैठती | ऐसे में ही एक दिन चर्चा की पूर्व में उल्लिखित व्यक्ति के रिश्तेदार से.... और तब उसने चौंकते हुए कहा कि अरे ये किताब तो भैया को भी बहुत पसंद थी उन्होने बताया नही आपको.....! जब पढ़ रहे थे तो बार बार कह रहे थे कि जाते ही बताऊँगा, उन्हे जरूर पसंद आयेगी | और मेरे सामने वो दिन घूम गया जब मुझसे आते ही इस रचना की चर्चा की गई थी | आँखें तो उसी समय भीग गई थी, मन आज तक भीगा हुआ है |
उम्र की चर्चा विशेषकर इसलिये की क्योंकि मुझे बहुत अच्छी तरह समझने वाले को जितना विश्वास २३ २३ वर्ष में था कि मुझे रचना पसंद ही आयेगी उतना ही २८ वर्ष की अवस्था में परिचित दुकानदार को | इसके ठीक २ साल बाद मैने ये मैने ये रचना अपनी एक सखी को पढ़ने को दी जो कि मुझसे ४ साल बड़ी हैं और उस समय लगभग ३४ वर्ष की होंगी, वो महीनों इसके प्रभाव मे रहीं |
तो मै बिना किसी का विरोध किये कहना चाहती हू कि बात उम्र की नही, बात भावनाओ कि है..... किसी भी उम्र मे हम कितना जुड़ पाते है भावनात्मक रूप से किसी रचना या भाव से बात सिर्फ इसपे निर्भर करती है शायद.....! या फिर ग्यान और तर्क का वर्जित फल चखने का अवसर कुछ लोगों को उम्र भर नही मिल पाता..................!ठीक‍ ठीक याद तो नही आ रहा लेकिन २२ नही तो २३ वर्ष की रही हूँगी मैं जब कि मुझे इस पुस्तक के विषय मे किसी स्वजन ने बताया जो कि मुझसे १ वर्ष छोटा होने के कारण २१ अथवा २२ वर्ष का होगा | बताने वाला ऐसा नही था कि गंभीर प्रकृति का ना हो, परंतु इतने उग्र स्वभाव का था कि मुझे लगा कि अवश्य ही ये उपन्यास किसी लाखन सिंह या मलखान सिंह की दयालुता पर लिखा गया होगा और मैने उपन्यास को गंभीरता से लिया ही नही..........! यहाँ तक कि मुझे उपन्यास का शीर्षक तक नही याद था! वक्त के साथ कई परिवर्तन हुए, मैं कानपुर से आंध्रा और आंध्रा से लखनऊ आ गई | उपन्यास का उल्लेख करने वाला व्यक्ति इतनी दूर चला गया जहाँ चिट्ठियाँ भी नही पहुँचती | अब मैं २८ वर्ष की थी, जब एक दिन कार्यालय के लिये हिंदी पुस्तकें खरीदते समय, ये पुस्तक हाथ मे उठाई तो विक्रेता जो कि आने जाने के कारण परिचित हो गया था, ने जिद कर के दे दी कि बड़ी प्रसिद्ध कृति है मैम आपको अवश्य पसंद आयेगी | किताब पढ़ी.... कवि हृदय, उस पर नारी मन, उस पर इतनी भावुक रचना, तो आँसुओं का सैलाब तो स्वाभाविक ही था...! बहुत दिनों तक मैं इस रचना के प्रभाव से मुक्त नही हो पाई... जो मिलता उससे ही चर्चा कर बैठती | ऐसे में ही एक दिन चर्चा की पूर्व में उल्लिखित व्यक्ति के रिश्तेदार से.... और तब उसने चौंकते हुए कहा कि अरे ये किताब तो भैया को भी बहुत पसंद थी उन्होने बताया नही आपको.....! जब पढ़ रहे थे तो बार बार कह रहे थे कि जाते ही बताऊँगा, उन्हे जरूर पसंद आयेगी | और मेरे सामने वो दिन घूम गया जब मुझसे आते ही इस रचना की चर्चा की गई थी | आँखें तो उसी समय भीग गई थी, मन आज तक भीगा हुआ है |
उम्र की चर्चा विशेषकर इसलिये की क्योंकि मुझे बहुत अच्छी तरह समझने वाले को जितना विश्वास २३ २३ वर्ष में था कि मुझे रचना पसंद ही आयेगी उतना ही २८ वर्ष की अवस्था में परिचित दुकानदार को | इसके ठीक २ साल बाद मैने ये मैने ये रचना अपनी एक सखी को पढ़ने को दी जो कि मुझसे ४ साल बड़ी हैं और उस समय लगभग ३४ वर्ष की होंगी, वो महीनों इसके प्रभाव मे रहीं |
तो मै बिना किसी का विरोध किये कहना चाहती हू कि बात उम्र की नही, बात भावनाओ कि है..... किसी भी उम्र मे हम कितना जुड़ पाते है भावनात्मक रूप से किसी रचना या भाव से बात सिर्फ इसपे निर्भर करती है शायद.....! या फिर ग्यान और तर्क का वर्जित फल चखने का अवसर कुछ लोगों को उम्र भर नही मिल पाता..................!

Unknown on दिसंबर 27, 2007 ने कहा…

yeh kahani maine 2 saal pahle padi thi lekin yeh kahani aaj bhi mere jehan me bilkul abhi tak usi tarah hai jaise ki mere subah ka khana ki aaj maine subaha kya khaya tha bass itna hi kahunga ki bahut hi accha upanyaas hai yah...saheel mehta

Hindi Cinema on जनवरी 04, 2008 ने कहा…

बहुत अच्छा लगा. बताना चाहता हूँ कि इस पुस्तक पर इसी नाम से 1967 में फ़िल्म भी बन चुकी है. फ़िल्म का ब्यौरा इस प्रकार है-
निर्देशक - वी शांताराम
मुख्य कलाकार- जितेन्द्र,
राजश्री,
महमूद,
अरुणा ईरानी,
असित सेन,
लीला चिटनिस
रिलीज़ तिथि - 1967

Arvind on मार्च 18, 2008 ने कहा…

राम जाने कि धर्मवीर भरती की मनः स्थिति उस वक्त क्या रही होगी जब उन्होंने इतनी महान कृति को रच डाला! इस कहानी ने मुझे झकझोर कर रख दिया ! क्या कोई लड़की सुधा जैसी हो सकती है? ये प्रश्न मेरे दिमाग में हर वक्त कोंधता रहा? क्या इस जीवन में कभी सुधा जैसी पवित्र प्रेम की मूर्ति को जानने का मौका मिलेगा?लोगों ने कहा कि ये तो केवल एक कहानी है ? लेकिन फ़िर मैंने सोचा कि कहानी भी किसी न किसी घटना से प्रेरित होती है! इसका मतलब सुधा जैसा चरित्र जरूर रहा होगा,क्यूंकि पहले के कहानीकार आजकल की तरह अंधाधुंध नही लिखते थे,उनकी कहानी के पीछे एक प्रेरणा दायक चरित्र होता था!इस बात ने मेरे मन को इतना संतोष प्रदान किया जिसे में शब्दों में बयां नही कर सकता!आजकल कितनी फिल्में कितनी कहानियाँ सुनने को मिलती हैं लेकिन इतनी मर्मस्पर्शी कथा जिसका एक एक शब्द किसी अति सुंदर आभूषण में लगे एक एक रत्न की तरह प्रतीत होता है,न कभी देखी न कभी सुनी!आज कल के समाज में जहाँ हर जगह अनाचार और प्रेम के नाम पर वासना का स्थान श्रेष्ठ हो गया है वहाँ यह कृति एक श्रेष्ठ धर्मं ग्रंथ की तरह लोगों का मार्गदर्शन कर सकती है! आजकल के युवाओं खासकर स्त्रियों को सुधा से प्रेरणा लेनी चाहिए ,जिसने अपने जीवन में सच्चे प्रेम का एक महान उदाहरण प्रस्तुत किया है!ये पुस्तक मेरे मन मन्दिर में हमेशा बसी रहेगी और मेरे ह्रदय की कोमल भावनाओं को सदैव जीवित रखेगी,मैं सभी लोगों से आग्रह करूंगा की इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें अगर आप प्रेम को सच्चे अर्थों में समझना चाहते हैं!
नमस्कार!

बेनामी ने कहा…

hello
can anyone please give me the full summary of the book since i have just read upto page 117

thank you

sanjay ने कहा…

I agree with Nandini.
Found nothing great in the book.
Yes was impressed when i read it for the first time way back in 1998.
The opening page Describing Allahabad is poetry in writing & is repeated elsewhere in book reminding life in Allahabad
( particulary Civil Lines Area) in different seasons.
But rest of script reflects confused paralytic mindsets of young people like Chander.
Distorted & Empty High Pedstal Romance with no real depth or substance.Geneartion & Communication Gap in Father,Bua & Daughter.
Mere play of words defining Ideology & quest & search.
Sorry Folks.
Try "KANUPRIYA" for Earthy & Divine Romance. It is a Masterpiece
by Dharmveer Bharti ji.

बेनामी ने कहा…

YE JINDGI HAI JAHA PYAAR HAR JATA AASU HAR JATE HAI. KALINE PATTLE DARIYA KULLAD BAJE SAHNAI JEET JATE HAI.


6 SAAL PAHLE PADI THE ABHI TAK YAAD HAI.

deepak kumar garg on फ़रवरी 19, 2013 ने कहा…

धर्मवीर भारती के उपन्यास गुनाहों का देवता पर भी संजय लीला भंसाली को मूवी या टी वी सीरियल बनाना चाहिए

डॉ0 अशोक कुमार शुक्ल on जुलाई 16, 2015 ने कहा…

.....यह भावुक कर देने वाला उपन्यास है परन्तु गुनाहों के इस देवता के गुनाह वास्तव में कैसे थे इसे जानने के लिये कांता भारती की कृति रेत की मछली भी उन सभी पाठको ंद्वारा अनिवार्य रूप से पढी जानी चाहिये जिन्होंने गुनाहों का देवता को पढा है। निंसन्देह उपन्यास के शिल्प की दृष्ठि से यह गुनाहों के देवता की तुलना में काफी कमजोर कृति है परन्तु कहना न होगा कि यह गुनाहों के देवता का अविभाज्य पहलू अवश्य है और साथ ही महानता का मुखौटा पहने चंदर केे असली चेहरे को परत दर परत उधेडने वाला उपन्यास है।

Unknown on फ़रवरी 07, 2019 ने कहा…

Ha kyuki ek philosophy or ise samjhne k liye dubna hota hai.

 

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