शुक्रवार, जनवरी 18, 2013

वार्षिक संगीतमाला 2012 पॉयदान # 18 : ख़्वाहिशों का चेहरा क्यूँ धुंधला सा लगता है ?

वार्षिक संगीतमाला की 18 वीं पॉयदान पर इस गीतमाला में आखिरी बार अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है सलीम सुलेमान की जोड़ी। जोड़ी ब्रेकर और हीरोइन के अधिकांश गीतों में वो कोई नया कमाल नहीं दिखा सके। उनके कई गीतों में उनकी पुरानी धुनों की झलक भी मिलती रही। अगर हीरोइन का ये दूसरा गीत इस गीतमाला में दाखिला ले रहा है तो इसकी वज़ह सलीम सुलेमान का संगीत नहीं बल्कि गीतकार और पटकथा लेखक निरंजन अयंगार के बोल हैं।

फैशन या कुर्बान के गीतों को याद करें तो आपको पियानों पर  इन दोनों भाइयों की पकड़ का अंदाजा हो जाएगा।  हीरोइन फिल्म का ये गीत भी पियानों की मधुर धुन से शुरु होता है। पर जैसे ही पौने दो मिनटों बाद इंटरल्यूड में संगीत सॉफ्ट रॉक का स्वरूप ले लेता है गीत का आनंद आधा रह जाता है।

पर सलीम सुलेमान जहाँ चूकते हैं उसके बाद भी निरंजन अयंगार के शब्द अपनी मजबूती बनाए रखते हैं। एक शाम मेरे नाम की वार्षिक संगीतमालाओं में शामिल होने वाला निरंजन का ये तीसरा गीत है। वार्षिक संगीतमाला 2010 में My Name is Khan के दो गीत सजदा.... और नूर ए ख़ुदा... शामिल हुए थे और तभी मैंने इस तमिल मूल के लेखक की गीतकार बनने की कहानी आपसे बाँटी थी। हीरोइन फिल्म के इस गीत में कमाल की काव्यात्मकता है।इसलिए गीत के बोल पढ़ते हुए भी गीतकार की लेखनी को दाद देने को जी चाहता है। अपनी तारीफ़ पर वो कुछ ऐसी प्रतिक्रिया देते हैं
मुझे अच्छा लगता है जब लोग मेरा काम सराहते हैं। पर एक मँजा हुआ गीतकार समझे जाने के लिए मुझे अभी ढेर सारा काम करना है। जब हम गुलज़ार साहब के कृतित्व पर टिप्पणी करते हैं तो हमारे ज़ेहन में उनका वर्षों से किया गया अच्छा काम रहता है। मैं अपनी एक सफलता से खुश नहीं होना चाहता और ना ही किसी एक विफलता से निराश।
निरंजन का ये गीत हमारी उस मानसिकता की पड़ताल करता है जो हमें अपनी इच्छाओ का दास बना देती है। एक चाह पूरी हुई कि दूसरी ने डेरा डाल दिया। उनको पूरा करने की सनक कब हमारी छोटी छोटी खुशियों , हमारे बने बनाए रिश्तों को डस लेती हैं इसका हमें पता ही नहीं चलता। इसलिए निरंजन गीत में कहते हैं

ख़्वाहिशों का चेहरा क्यूँ धुंधला सा लगता है
क्यूँ अनगिनत ख़्वाहिशें हैं
ख़्वाहिशों का पहरा क्यूँ, ठहरा सा लगता है
क्यूँ ये गलत ख़्वाहिशें हैं

हर मोड़ पर, फिर से मुड़ जाती हैं
खिलते हुए, पल में मुरझाती हैं
हैं बेशरम, फिर भी शर्माती हैं ख़्वाहिशें

ज़िंदगी को धीरे धीरे डसती हैं ख़्वाहिशें
आँसू को पीते पीते हँसती हैं ख़्वाहिशें
उलझी हुई कशमकश में उमर कट जाती है


निरंजन हमें आगाह करते हैं कि ख़्वाहिशों के इस भँवर में फँसे इंसान की नियति उसी भँवर में डूबने की होती है। खुशियों की चकाचौंध में आँखें मिचमिचाने से क्या ये अच्छा नहीं कि उसकी एक हल्की किरण की गुनगुनाहट का हम आनंद लें ?

आँखें मिच जाएँ जो उजालों में
किस काम की ऐसी रोशनी
भटका के ना लाए जो किनारों पे
किस काम की ऐसी कश्ती

आँधी है, धीरे से हिलाती है
वादा कर धोखा दे जाती है
मुँह फेर के, हँस के चिढ़ाती हैं ख़्वाहिशें

ज़िंदगी को धीरे धीरे डसती हैं ख़्वाहिशें


इस गीत को  गाया है श्रेया घोषाल ने। इस में कोई दो राय नहीं कि नीचे और ऊँचे सुरों में भी वो गीत के शब्दों की गरिमा के साथ पूरी तरह न्याय करती हैं। तो आइए श्रेया की आवाज़ के साथ डूबते हैं हम ख़्वाहिशों के इस समर में...

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3 टिप्पणियाँ:

प्रवीण पाण्डेय on जनवरी 18, 2013 ने कहा…

न जाने कितनी चाहत है,
चाहत है, कुछ तो राहत है।

Ankit on जनवरी 22, 2013 ने कहा…

वाकई इस गीत के अच्छे लगने में निरंजन और श्रेया को योगदान ही है, सलीम-सुलेमान के संगीत को अगर इसमें रख कर उसका रंग फीका ही होता है। हेरोइन की गीतों को अलग से नहीं सुना था, फिल्म के साथ ही सुना था, इसलिए ये गीत दोबारा सुनने से रह गया था। आपकी प्रस्तुति इसके रंग को थोडा और निखार दे रही है।

Manish Kumar on जनवरी 26, 2013 ने कहा…

प्रवीण हम्म्म ये भी एक नज़रिया है।

अंकित सलीम सुलेमान को अपने संगीत में नवीनता लाने की सख़्त जरूरत है।

 

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