बुधवार, अप्रैल 21, 2010

मोड़ पे देखा है वह बूढ़ा-सा इक पेड़ कभी? - प्रकृति से हमारे रिश्तों की पड़ताल करते गुलज़ार

अप्रैल का मौसम कभी इतनी कड़ी धूप का तलबदार ना था। खासकर उस प्रदेश में जिसका नामाकरण ही जंगल और झाड़ियों के नाम पर किया गया हो। पहले देश का सर्वाधिक तापमान देखने के लिए राजस्थान के शहरों के तापमान पर नज़र दौड़ानी होती थी पर अब तो इतनी मशक्क़त करने की ज़रा सी भी जरूरत नहीं। बोकारो धनबाद से लेकर देवघर और जमशेदपुर तक पूरा झारखंड अप्रैल के महिने में ही 45 से 47 डिग्री की चिलचिलाती धूप में झुलस रहा है।

वैसे तो कमोबेश पूरे भारत की यही स्थिति होगी पर प्राकृतिक संपदा से परिपूरित इस प्रदेश का ये हाल चौंकाने वाला जरूर है। इसका सीधा-सीधा अर्थ यही है कि कहीं ना कहीं हम सभी अपने आस पास की प्रकृति को नष्ट होते देख के भी संवेदनहीन हुए जा रहे हैं।

आर्थिक विकास की इस दौड़ में कंक्रीट के जंगलों के बीच वो पुरानी आबो हवा कहीं खो सी गई है। क्या हम भूल गए उन पेड़ों को, जिनकी छाँव ने हर गर्मी में तपते सूरज की इन झुलसाती किरणों का रास्ता रोका। जिनकी विशालकाय मोटी शाखें बचपन में हमारे झूलों का अवलंब बनीं। जिनके तनों पर चढ़ उतर कर हमने ना जाने कितनी मस्तियाँ की।


घर के आँगन या अहाते में पलते बढ़ते ये वृक्ष भी हमारे साथ ही बढ़ते गए और साथ ही उनके सीने में समाती गईं वे आनंददायक स्मृतियाँ। बचपन बीता, ठिकाने बदलते रहे और वो पेड़.... वो तो अब आस पास रहे ही नहीं। सो उनसे जुड़ी यादें तो क्षीण होनी ही थीं। पर जब जब हम अपने पुराने आशियाने में वापस लौटे, उन पेड़ पौधों को देख वो यादें इस तीव्रता से वापस आ गयीं जेसे कभी गई ही ना हों। आखिर क्यूँ हुआ ऐसा !

दरअसल हमें एहसास हो ना हो अनजाने में ही हम अपनी आस-पास की प्रकृति से एक रिश्ता बना लेते हैं। एक ऐसा मज़बूत रिश्ता जिसकी गिरहें कटने से हमें वैसी ही पीड़ा होती है जैसे किसी इंसानी रिश्ते के टूटने पर होती है।

गुलज़ार साहब की लिखी एक कविता याद आ रही है जो ऐसे ही एक रिश्ते की कहानी कहती है। गुलज़ार ने जिस खूबी से अपने जिंदगी के सबसे हसीन लमहों को गली के किनारे खड़े उस पेड़ से जोड़ा है, वो आप इस कविता को पढ़ कर ही महसूस कर सकते हैं। इस कविता को बोलते हुए पढ़ना एक पूरे अनुभव से गुजरने जैसा है। तो आइए मेरे साथ पढ़िए इस कविता को...



मोड़ पे देखा है वह बूढ़ा-सा इक पेड़ कभी?
मेरा वाक़िफ़ है, बहुत सालों से मैं उसे जानता हूँ

जब मैं छोटा था तो इक आम उड़ाने के लिए
परली दीवार से कंधे पर चढ़ा था उसके
जाने दुखती हुई किस शाख़ से जा पाँव लगा
धाड़ से फेंक दिया था मुझे नीचे उसने
मैंने खुन्नस में बहुत फेंके थे पत्थर उस पर

मेरी शादी पे मुझे याद है शाख़ें देकर
मेरी वेदी का हवन गर्म किया था उसने
और जब हामिला थी 'बीबा' तो दोपहर में हर दिन
मेरी बीवी की तरफ कैरियां फेंकी थीं इसी ने

वक्त के साथ सभी फूल, सभी पत्ते गए
तब भी जल जाता था जब मुन्ने से कहती 'बीबा'
'हाँ उसी पेड़ से आया है तू, पेड़ का फल है'
अब भी जल जाता हूँ, जब मोड़ गुजरते में कभी
खाँसकर कहता है, 'क्यों सर के सभी बाल गए?'

सुबह से काट रहे हैं वो कमेटी वाले
मोड़ तक जाने की हिम्मत नहीं होती मुझको...


क्या आपको नहीं लगता कि जिस प्रकृति के बीच हम पले बढ़े हैं, उसके साथ बने रिश्तों ने हमारे जीवन में जैसे अनमोल पल दिए हैं वैसा ही कुछ अपने बच्चों को भी हम उपलब्ध कराएँ?

Related Posts with Thumbnails

18 टिप्पणियाँ:

कंचन सिंह चौहान on अप्रैल 21, 2010 ने कहा…

बहुत संवेदनशील है ये नज़म..... ऐसा ही एक जामुन का पेड़ हमारी भी यादो में जिसके कटने पर बहत रोई थी।

Abhishek Ojha on अप्रैल 21, 2010 ने कहा…

हमने अपने ऑफिस के एक पेंटिंग कॉम्पटीशन में पेंटिंग बना कर उस पर यही लिखा था ... 'विल योर चिल्ड्रेन सी दिस?' पेंटिंग तो बेकार थी लेकिन लाइन हित हो गयी. पेंटिंग पर्यावरण पर बनानी थी.

Himanshu Pandey on अप्रैल 21, 2010 ने कहा…

पेड़ हमारी संवेदना का बड़ा हिस्सा घेरते हैं ! मेरी भी छत पर झुक आये पेड़ की डालियाँ आज भी मिस करता हूँ मैं ! उस पेड़ के कटने के साथ कितनी यादें विरम गयीं !
बेहद खूबसूरत नज्म है गुलजार साहब की ! यहाँ प्रस्तुति का आभार ।

सुशील छौक्कर on अप्रैल 21, 2010 ने कहा…

अब वक्त आ गया है कि हम चैत जाए।
कंक्रीट के जगलों में पेड़ ही पेड़ लगाए

और गुलजार जी की तो बात ही कुछ और है। मुझे लगता है इन्होंने अपनी लेखनी से हर विषय को छूआ है।

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) on अप्रैल 21, 2010 ने कहा…

kuchh kahanaa chaahate the ham bhi is baat par....magar guljaar saahab ke meethe bolon ke aage hamaari bolti band......!!

डॉ .अनुराग on अप्रैल 21, 2010 ने कहा…

गुलज़ार को समझना एक खास फील से गुजरना है ....ओर उसके बाद आप पायेगे कैसे ये इन्सान छोटे छोटे कतरों को पकड़ एक रंग कागज पर बिखेर देता है ......लोग अक्सर या तो उन्हें सरसरी तौर पे पढ़ते है या उन्हें फ़िल्मी लेखक मान कर उतनी तवज्जो नहीं देते जिसके वे हक़दार है .अलबत्ता कई सहितियिक लेखको की कविताएं मुझे बेहद साधारण ओर फीकी लगी है ....

aor haan tumhare blog ko kholne ke liye badi mehnat karni padti hai ab bhi.....kuch karo yaar.....

राज भाटिय़ा on अप्रैल 21, 2010 ने कहा…

हम ने इस प्राकृति की कदर नही की, अपने ही सुख ओर ऎश के लिये हम सब ने इस का दोहन किया अपनी अपनी ऒकात के हिसाब से अब फ़ल भी हम सब को भुगतना है....

जितेन्द़ भगत on अप्रैल 21, 2010 ने कहा…

एक जरूरी पोस्‍ट, अच्‍छी आवाज के साथ।

झारखंडी आदमी on अप्रैल 21, 2010 ने कहा…

गुलज़ार साहब को सुनता हूँ तो थोडा रूमानी हो जाता हूँ वृक्ष तो वैसे भी मेरे जीवन का अभिन्न अंग रहे हैं सहरों ने हमारे जंगंलो को निगल लिया या फिर पूंजीवाद का साइड effect ने प्रकृति को तहस नहस सा कर दिया है और जंगल नहीं तो चिड़िया की कुक नहीं और कुक नहीं तो श्रृंगार रस की कविताएँ नहीं एक आची पोस्ट बेहतरीन कविता और आवाज़ केसाथ

प्रिया on अप्रैल 21, 2010 ने कहा…

kya baat, kya baat, kya baat.....gulzaar to hain hi lajawaab

Bohemian on अप्रैल 22, 2010 ने कहा…

आज तक का सबसे अच्छा पोस्ट. बहुत अच्छा धुंद के निकला. साधुवाद आपको
- रवि

Sneha Shrivastava on अप्रैल 22, 2010 ने कहा…

humarey ghar aam k jo pad hai uskey saath bhi esey hee behot see yaaden judi hui hai or usmey sey bijli key taar gujrtey hai jissey aas pass key logo ko peryshani hoti hai aandhi key waqat, dekhiy kab tak reh pata hai wo humrey saath.

rashmi ravija on अप्रैल 22, 2010 ने कहा…

गुलज़ार की ये नज़्म तो बस बेमिसाल है...हर एक को अपना दर्द महसूस हुआ इसमें...सबका कभी ना कभी किसी पेड़ से कोई ख़ास रिश्ता जरूर रहा है...

Priyank Jain on अप्रैल 22, 2010 ने कहा…

bahut marmik kavita, wastav me humara apni prakriti aur watawarn se gehra nata hai jise hum nazarandaaz kiye jaa rahe hain

दिलीप कवठेकर on अप्रैल 24, 2010 ने कहा…

आपकी संवेदनाओं और अभिव्यक्ति के तो कायल थे ही.

मगर आपका नेरेशन भी प्रभावित कर गया.

अंतिम लाईन (दो बार) तो अज़ब से दिल के अंदर रूह तक उतर गयी.

Manish Kumar on अप्रैल 24, 2010 ने कहा…

आप सब ने गुलज़ार की इस कृति को दिल से महसूस किया और इससे जुड़ी अपनी यादें बाँटी। पढ़कर बहुत अच्छा लगा।

गुलज़ार वाकई कमाल के शायर हैं और ये भी सही है कि अपने इस फ़न के लिए जिस तवोज्जह के हक़दार हैं वो उन्हें आम कविता प्रेमियों से तो मिली है पर साहित्यिक हलकों से नहीं।

दिलीप जी: आप जैसे कलाकार की तरफ़ से आए उद्गार मेरे हौसले में निश्चय ही वृद्धि करते हैं। बहुत बहुत शुक्रिया जनाब।

अनुराग पिछली बार जब आपने इस समस्या की ओर ध्यान दिलाया था तो वैसी ही कुछ समस्या मेरी तरफ़ भी आ रही थी। फिर मैंने तीन विजेट हटाए भी और फिलहाल यहाँ दिक्कत नहीं आ रही। अब ऐसा क्यूँ हो रहा है ये समझ नहीं पा रहा।

रंजना on मई 11, 2010 ने कहा…

लगभग महीने भर बाद आज ब्लॉग पढने का अवसर मिला है और आपकी इस पोस्ट ने मेरी टीस को और भी गहरा दिया है....
ये पैंतालीस और सैंतालीस डिग्री तापमान,अतिवृष्टि अनावृष्टि ...सब प्रकृति को नोचते खसोटते जाते रहने का परिणाम है...सिर्फ लेना लेना और लेना जानते हैं हम...कभी इसके प्रति अहसानमंद नहीं होते न ही इसके संरक्षण को उत्सुक होते हैं...

raghwendra on फ़रवरी 26, 2016 ने कहा…

बहुत ही सुंदर पोस्ट है आपका, गुलज़ार की इस कविता को कुछ महीने पहले मैंने पढ़ा था और अंतिम पंक्ति तक पहुंचते आंखों से झर झर करते आंसू बहने लगे थे। तब से लेकर अब तक न जाने कितनी बार पढ़ा और हर बार वही हुआ।

 

मेरी पसंदीदा किताबें...

सुवर्णलता
Freedom at Midnight
Aapka Bunti
Madhushala
कसप Kasap
Great Expectations
उर्दू की आख़िरी किताब
Shatranj Ke Khiladi
Bakul Katha
Raag Darbari
English, August: An Indian Story
Five Point Someone: What Not to Do at IIT
Mitro Marjani
Jharokhe
Mailaa Aanchal
Mrs Craddock
Mahabhoj
मुझे चाँद चाहिए Mujhe Chand Chahiye
Lolita
The Pakistani Bride: A Novel


Manish Kumar's favorite books »

स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

एक शाम मेरे नाम Copyright © 2009 Designed by Bie