बुधवार, फ़रवरी 03, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 :पॉयदान संख्या 16 - उम्मीद अब कहीं कोई दर खोलती नहीं..जलने के बाद शमा और बोलती नहीं !

वार्षिक संगीतमाला 2009 की 16 वीं पॉयदान स्वागत कर रही है पिछले साल की एकमात्र फिल्मी ग़ज़ल का जो इस साल के मेरे पच्चीस मनपसंद गीतों में अपनी जगह बना सकी है। नंदिता दास द्वारा निर्देशित फिल्म फिराक़ की इस ग़ज़ल की रचना की है एक बार फिर गुलज़ार साहब ने। गुजरात के दंगों पर बनी इस गंभीर फिल्म के गीतों में जिस संवेदनशीलता की जरूरत थी उसे गुलज़ार ने बखूबी निभाया है।


अब आप ही बताइए दंगों से हैरान परेशान आदमी अपना कष्ट लिए प्रशासन के पास जाए और अगर उसे दुत्कार और प्रताड़ना के आलावा कुछ ना मिले तो वो क्या करेगा ? नाउम्मीद हो कर अपना दर्द मन में छुपाए मौन ही तो रह जाएगा ना। गुलज़ार ने इन भावनाओं को ग़ज़ल के मतले में शब्द देते हुए लिखा और क्या लाजवाब लिखा....

उम्मीद अब कहीं कोई दर खोलती नहीं
जलने के बाद शमा और बोलती नहीं


चारों ओर हिंसा और आगजनी से पसरे सन्नाटे को गुलज़ार ने अगले दो अशआरों में समेटने की कोशिश की है

जो साँस ले रही है हर तरफ़ वो मौत है
जो चल रही है सीने में वो जिंदगी नहीं

हर एक चीज जल रही है शहर में मगर
अँधेरा बढ़ रहा है कहीं रौशनी नहीं

जलने के बाद शमा और बोलती नहीं
उम्मीद अब कहीं कोई दर खोलती नहीं...

ये एक ऐसी ग़ज़ल है जो फिल्म की ही भांति हमें ये सोचने पर मजबूर करती है कि इंसान जब हैवानियत की चादर ओढ़ लेता है तो एक जीवंत शहर को लाशों और राख का ढेर बनते देर नहीं लगती।

इस ग़ज़ल का संगीत दिया है एक नवोदित संगीतकार जोड़ी पीयूष कनौजिया और रजत ढोलकिया ने । ये वही रज़त ढोलकिया हैं जिन्होंने पंचम के इंतकाल के बाद १९४२ ए लव स्टोरी का संगीत पूर्ण किया था। वे धारावी, होली और मिर्च मसाला जैसी लीक से हटकर बनाई गई फिल्म का संगीत भी दे चुके हैं। हाल फिलहाल में दिल्ली ६ में रहमान के साथ उनका नाम भी सह संगीत निर्देशक की हैसियत से था। चाहे मुखड़े के पहले की बात करे या अशआरों के बीच का फिलर हर जगह ग़ज़ल का संगीत मन में गहरी उदासी का रंग भरता नज़र आता है। रेखा भारद्वाज एक बार फिर अपनी उत्कृष्ट गायिकी द्वारा ग़ज़ल के मिज़ाज को हूबहू पकड़ने में सफल रही हैं।

तो अगर आपके पास कुछ फुर्सत के लमहे हों तो कोशिश कीजिए इस ग़ज़ल की भावनाओं में डूबने की...



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12 टिप्पणियाँ:

रंजना on फ़रवरी 03, 2010 ने कहा…

उफ्फ्फ ....क्या कहूँ....लाजवाब...बेहतरीन....

पारुल "पुखराज" on फ़रवरी 03, 2010 ने कहा…

रेखा भारद्वाज की आवाज़ अच्छी लगती है .रेगिस्तानों में जलती-बुझती सी ..ज़रा ज़रा

Udan Tashtari on फ़रवरी 03, 2010 ने कहा…

जब फिराक फिल्म देखी तब से यह और जिस गज़ल पर नसरुद्दीन शाह नें पढ़ा..दिमाग से उतरती ही नहीं..बहुत उम्दा!

कंचन सिंह चौहान on फ़रवरी 03, 2010 ने कहा…

बहुत देर से डॉउनलोड करने की कोशिश कर रही हूँ मगर सफलता नही मिली... आवाज़ बहुत धीमी आ रही है..मगर गज़ल हर तरह से बहुत ही संवेदनशील है।

Manish Kumar on फ़रवरी 03, 2010 ने कहा…

रंजना ,समीर जी, पारुल ग़ज़ल पसंद आई जानकर खुशी हुई.
कंचन यहाँ तो प्ले करने पर आवाज़ बुलंद है। वैसे गीत बड़ी हल्की धुन से शुरु होता हे और २५ ३० सेकेंद के बाद आवाज़ बढ़ती है।

Ruchi Vardan ने कहा…

I liked this song...

vikas zutshi on फ़रवरी 04, 2010 ने कहा…

manish sir bhut acha geet, yahan se jakar apni face book par chipka dala

Priyank Jain on फ़रवरी 04, 2010 ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Priyank Jain on फ़रवरी 04, 2010 ने कहा…

"jal gaya jangal, dhuan uthta raha
mahkma-e-wazeer usku bayar samjhta raha"

nishkreeyta hamari vyavastha me kis tarah ghar kar gayi hai iska anubhav hum sabhi ko hai aur is babat jagruti lane hetu hindi cinema ne bhi kuch kam yogdan nahi diya.
khair, geet-sangeet ki baat ke beech ye betuka aalap hi lagega.
incisive music,intensive lyrics,sober voice
ABHAR

Manish Kumar on फ़रवरी 05, 2010 ने कहा…

विकास, रुचि और प्रियंक गीत की संवेदनशीलता आपके मन को छू सकी जान कर सुखद संतोष हुआ।

गौतम राजऋषि on फ़रवरी 14, 2010 ने कहा…

श्रीनगर की एक शाम याद आयी जब मैं और डा० अनुराग संग बैठे थे और आपकी चर्चा उठ आयी थी...इस ग़ज़ल की भी।

Alapana on फ़रवरी 16, 2010 ने कहा…

haan, this is one song from the list of 2009 which stands out to be the best, every line in there touches your heart.

 

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