गुरुवार, जून 25, 2009

दिल जो ना कह सका आज सुनिए लता जी की मीठी आवाज में ये रूमानियत भरा गीत...

पिछली पोस्ट में आपने सुना इस गीत को मोहम्मद रफ़ी  की आवाज़ में। सुरों की मलिका लता जी ने भी इस प्यारे से गीत को अपना स्वर दिया है। जैसा कि मैंने पहले कहा था कि लता वाले वर्सन का मिज़ाज कुछ दूसरा है।रफ़ी साहब का गाया गीत एक ऊंचा टेम्पो लिए हुए था वहीं मीना कुमारी पर फिल्माया ये गीत उस शांत नदी की धारा की तरह है जिसके हर सिरे से सिर्फ और सिर्फ रूमानियत का प्रवाह होता है।


जहाँ रफ़ी साहब को विभिन्न अंतरों में गीत के बदलते भावों के हिसाब से आवाज़ का लहजा बदलना था वहीं लता इस गीत में अपनी मीठी आवाज़ से प्रेम में आसक्त नायिका के कथ्यों में मिसरी घोलती नज़र आती हैं।

वैसे अंतरजाल पर इस गीत के बारे में ये बहस आम है कि गीत के इन दोनों रूपों में कौन सी प्रस्तुति ज्यादा धारदार थी? दो महान गायकों की ऍसी तुलना मुझे तो बेमानी लगती है, खासकर तब जब दोनों गीतों की परिस्थितियाँ फिल्म 'भीगी रात' में बिल्कुल अलहदा थीं।हाँ, मुझे ये जरूर लगता है कि रफ़ी वाले वर्सन को सफलता पूर्वक निभाने के लिए किसी भी गायक के लिए चुनौतियाँ कही ज़्यादा थीं।

लता रोशन जी की बतौर संगीतकार बेहद इज्जत करती थीं । और यही वज़ह है कि पचास साठ के दशक में बहू बेगम, चित्रलेखा, ममता, ताजमहल में संगीतकार रौशन के लिए गाए उनके गीत हिन्दी पार्श्व फिल्म गायन की अनमोल धरोहर बन गए हैं।

वैसे ये गीत भी अपने आप में लाजवाब है। गीत के शुरुआती हिस्से में लता जी की हमिंग के बीच चाशनी में घुला हुआ उनका स्वर उभरता है तो बस मन में समा बँध जाता है। वैसे इसके बाद कोई कसर बचती भी है तोगीतकार मज़रूह सुल्तानपुरी  के कभी नरमी कभी शोखी लिए बोल आपको रूमानी माहौल से निकलने का मौका ही नहीं देते।

हम्म्म्म...हम्म्म्म..हम्म्म्म
दिल जो ना कह सका
वही राज़-ए-दिल कहने की रात आई
दिल जो ना कह सका....

नगमा सा कोई जाग उठा बदन में
झंकार की सी थरथरी है तन में
झंकार की सी थरथरी है तन में
हो प्यार की इन्हीं धड़कती
धड़कती फिज़ाओं में, रहने की रात आई
दिल जो ना कह सका....

अब तक दबी थी इक मौज़ ए अरमाँ
लब तक जो आई बन गई है तूफाँ
लब तक जो आई बन गई है तूफाँ
हो..,, बात प्यार की बहकती
बहकती निगाहों से कहने की रात आई
दिल जो ना कह सका....

गुजरे ना ये शब, खोल दूँ ये जुल्फ़ें
तुमको छुपा लूँ मूँद के ये पलकें
तुमको छुपा लूँ मूँद के ये पलकें
हो..बेकरार सी लरज़ती
लरज़ती सी छाँव में रहने की रात आई
दिल जो ना कह सका....
(मौज़ ‍- लहर , लरज़ना - काँपना, थरथराना)

प्रेम रस से सराबोर इस गीत को अगर आप मीना कुमारी और प्रदीप कुमार की अदाकारी के साथ देखना चाहते हैं तो ये रहा इसका वीडिओ लिंक....

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7 टिप्पणियाँ:

Rajesh on जून 25, 2009 ने कहा…

Manish Ji Maza aa gaya, purani yaade taza ho gayi. Sahi main ye geet ek anmol dharohar hai, sun kar man jhoomne lagta hain. yadon ki un galiyon main fir se le jaane ke liye hardik dhanyawad. Ek farmaish jaroor hai aap se ki 'Pyasa' film ka woh geet 'Jinhe naaz tha hind par woh kaha hai' Bhi is blog main jaroor shamil kare

Rajesh

राज भाटिय़ा on जून 25, 2009 ने कहा…

मनीष जी बहुत सुंदर लिखा आप ने लेकिन गीत तो चल ही नही रहा ! मेरी पसंद का है यह गीत.
धन्यवाद

Abhishek Ojha on जून 25, 2009 ने कहा…

इन कलाकारों की तुलना करना तो बेमानी है ही. अच्छी प्रस्तुति.

Udan Tashtari on जून 26, 2009 ने कहा…

बहुत आभार.

कंचन सिंह चौहान on जून 26, 2009 ने कहा…

सच कहा दोो की तुलना करने की कोई बात ही नही है...! दोनो ही अपने मूद के बेजोड़ गीत..!

हरि जोशी on जून 27, 2009 ने कहा…

जितनी बार लता जी को सुनिए; एक नया अनुभव होता है।

Zyenab on जुलाई 02, 2009 ने कहा…

sahi kaha aap ne ye geet waqai apne aap mein lajavab hai

 

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