बुधवार, अगस्त 27, 2008

अहमद फ़राज़ (1931 - 2008) : इक शायर अलहदा सा जिसकी कलम अमानत थी आम लोगों की...

कल दिन में याहू के मेल बॉक्स में जब कई स्पैम्स के बीच ये मेसज दिखाई दी कि फ़राज़ नही रहे तो दिल धक से रह गया। एकबारगी तो लगा कि हो सकता है कि ये खबर गलत हो। पर गूगल सर्च में जब पाकिस्तानी अखबार 'जंग' की जानिब से इस खबर की पुष्टि हुई तो मन अनमना सा हो गया। बरबस उनकी ये पंक्तियाँ याद आ गईं अपने सिवा हमारे न होने का ग़म किसे अपनी तलाश में तो हम ही हम हैं दोस्तों कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा-बुझा कुछ शहर के चिराग़ भी मद्धम हैं दोस्तों फ़राज़ कई बीमारियों से लगातार जूझ रहे थे और उनकी हालत जुलाई के पहले हफ्ते में अमरीका जाने पर और बिगड़ गई थी और सोमवार की रात, इस्लामाबाद में बिताई उनकी आखिरी रात साबित हुई। फ़राज़ की शायरी से मेरा परिचय पहले पहल मेहदी हसन और गुलाम अली की ग़ज़लों से ही हुआ था। पर अहमद फ़राज में मेरी दिलचस्पी तब और बढ़ी जब नब्बे के दशक में उनके दिल्ली आगमन पर टाइम्स आफ इंडिया (The Times of India) में उनका एक इंटरव्यू पढ़ा। उस इंटरव्यू में फ़राज से पूछा गया कि क्या शायरी बिना खुद के अनुभवों कर लिखी जा सकती है? फ़राज ने उत्तर दिया नहीं, सच्ची शायरी तभी निकलती है जब दिल की हदों से कोई बात महसूस की जा सके। उन्होंने उसी साक्षात्कार में बताया था कि रंजिश ही सही... उन्होंने एक मोहतरमा के लिए लिखी थी। पर जिसके लिए ये लिखी गई थी उसके बाद उनसे उनका मिलना नहीं हो सका। सालों बाद अपने एक कॉमन फ्रेंड से जब उनकी मुलाकात हुई तो उसने उन्हें बताया कि वो तो फक्र से कहती फिरती है कि फराज़ ने ये ग़ज़ल मेरे लिए लिखी है। फ़राज के सहपाठी और पत्रकार इफ्तिखार अली का कहना है कि कॉलेज के ज़माने से फ़राज एक आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे। शुरु से उनका झुकाव कविता की ओर था। वे अक्सर छात्रों को अपने इर्द-गिर्द जमा कर लेते और अपनी रूमानी कविताएँ सुनाया करते। पेशावर में उस वक़्त लड़के और लड़कियों को कॉलेज में मिलने जुलने की रिवायत नहीं थी। पर फ़राज की कविताएँ जाने कैसे छात्राओं तक पहुँच ही गईं। फिर तो दर्जनों की शक्ल में चाहने वालियों के हस्तलिखित पत्र उन्हें मिलने लगे। अमीर घरों की लड़कियाँ अपने नौकरों के हाथों ख़त भिजवाया करतीं तो बाकी खुद बस स्टॉप पर ही ख़तों की डिलिवरी कर देतीं। प्रेम को जिस शिद्दत से उन्होंने अपनी शायरी का विषय बनाया उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। जिस खूबसूरती से वो शब्दों को अशआर में वो मोतियों की तरह पिरोते थे वो उनके इन अशआर पर गौर करने से आप खुद ही समझ जाएँगे ************************************ दुख फ़साना नहीं के तुझसे कहें दिल भी माना नहीं के तुझसे कहें आज तक अपनी बेकली का सबब ख़ुद भी जाना नहीं के तुझसे कहें ************************************ क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे दिल वो बेमेहर कि रोने के बहाने माँगे अपना ये हाल के जी हार चुके लुट भी चुके और मोहब्बत वही अन्दाज़ पुराने माँगे ************************************ बरसों के बाद देखा इक शख़्स दिलरुबा सा अब ज़हन में नहीं है पर नाम था भला सा अल्फ़ाज़ थे के जुग्नू आवाज़ के सफ़र में बन जाये जंगलों में जिस तरह रास्ता सा ख़्वाबों में ख़्वाब उस के यादों में याद उस की नींदों में घुल गया हो जैसे के रतजगा सा तेवर थे बेरुख़ी के अंदाज़ दोस्ती के वो अजनबी था लेकिन लगता था आशना सा ************************************ अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें ************************************ मशहूर पत्रकार खालिद हसन उनके बारे में लिखते हैं कि फ़राज़ हमेशा से तानाशाहों के विरुद्ध और लोकतंत्र के हिमायती रहे। जनरल जिया का विरोध करने की वज़ह से उन्हें नौकरी से हाथ धोना पड़ा और कुछ सालों के लिए वे निर्वासित भी हुए। इस बात को जानकर आपको हैरानी जरूर होगी पर फ़राज किशोरावस्था में कश्मीर के १९४७ -१९४८ के युद्ध में स्वेच्छा से सम्मिलित हुए थे। पाकिस्तानी शासकों से उनकी कभी बनी नहीं और उन्होंने हमेशा वही किया और लिखा जिसकी उनके दिल ने गवाही दी। शायद ही इस ज़माने में भारतीय उप महाद्वीप में उनके जितनी शोहरत किसी और शायर को मिली। उन्हें बड़े चाव से पढ़ा जाता रहा और सुना जाता रहा। जनरल जिया की हुकूमत के खिलाफ उनकी नज़्म महसूर (Mahasara) (चारों ओर से घिरा हुआ ) काफी लोकप्रिय हुई थी। सुनिए उन्हीं की आवाज़ में ये नज़्म फ़राज़ की ये पंक्तियाँ उनकी कलम, उनके आदर्श, उनकी शख्सियत की कहानी कहती हैं मेरा कलम नहीं तजवीज़1 उस मुबल्लिस की जो बन्दिगी का भी हरदम हिसाब रखता है मेरा कलम नहीं मीज़ान2 ऍसे आदिल3 की जो अपने चेहरे पर दोहरा नकाब रखता है मेरा कलम तो अमानत है मेरे लोगों की मेरा कलम तो अदालत मेरे ज़मीर की है इसीलिए तो जो लिखा शफा-ए-जां से लिखा ज़बीं4 तो लोच कमान का जुबां तीर की है मैं कट गिरूँ कि सलामत रहूँ यक़ीन है मुझे कि ये हिसार5-ए-सितम कोई तो गिराएगा 1. सम्मति, राय, 2.तराजू, 3.न्याय करने वाला, 4. मस्तक, 5. गढ़, किला और चलते-चलते अहमद फ़राज़ की लिखी चंद पंक्तियाँ अपनी श्रृद्धांजलि के तौर पर इस महान शायर के लिए अर्पित करना चाहूँगा वो गया था साथ ही ले गया, सभी रंग उतार के शहर का कोई शख्स था मेरे शहर में किसी दूर पार के शहर का चलो कोई दिल तो उदास था, चलो कोई आँख तो नम रही चलो कोई दर तो खुला रहा शबे इंतजार के शहर का किसी और देश की ओर को सुना है फराज़ चला गया सभी दुख समेत के शहर के सभी कर्ज उतार के शहर का ...
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23 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari on अगस्त 27, 2008 ने कहा…

वाह, सही कलम चली-हमारी विनम्र श्रृद्धांजलि!!!

बेनामी ने कहा…

बहुत अच्छा लेख। फ़राज साहब को हमारी श्रद्धांजलि।

राजीव रंजन प्रसाद on अगस्त 27, 2008 ने कहा…

अहमद फराज साहब जैसे मेरे निजी थे। उनकी शायरी को ओढा बिछाया और जिया है। यह एसी क्षति है जिसकी कोई भरपायी नहीं। आदरणीय अहमद साहब को विनम्र श्रद्धांजलि..


***राजीव रंजन प्रसाद

Tarun on अगस्त 27, 2008 ने कहा…

हमारी श्रद्धांजलि भी कबूल फरमायें, तफसीर से लिखने के लिये धन्यवाद

बेनामी ने कहा…

सुन्दर स्मरण । श्रद्धांजलि ।

रंजू भाटिया on अगस्त 27, 2008 ने कहा…

बहुत सुंदर ढंग से आपने यह लेख लिख कर फ़राज़ जी को श्रद्दांजली दी है उनका लिखा कभी भुलाया नही जा सकता है

अमिताभ मीत on अगस्त 27, 2008 ने कहा…

बहुत सुंदर पोस्ट, मनीष. सच में इतनी सादगी से, इतनी basic बातें इस खूबसूरती से कहना कि हर बार, हर बात दिल तक पहुँच जाए ... "अहमद फ़राज़" .... जो लिखा लाजवाब लिखा .... हमारे दौर की शायरी को इस अजीम शायर ने बड़े ऊंचे मुकाम तक पहुंचाया. श्रद्धांजलि.

नयनसुख on अगस्त 27, 2008 ने कहा…

बहुत सुंदर संस्मरण उकेरा है मनीष जी

बेनामी ने कहा…

अंतर्मन से लिखी गई श्रद्धांजलि ने मेरे अंतर्मन को छुआ।

Dr. Ravindra S. Mann on अगस्त 27, 2008 ने कहा…

कुछ लोग कभी नहीं जाते। अहमद फराज भी हमेशा हमारे आस -पास ही रहेंगे। जब भी जिन्दगी की उलझनों में किसी हल की ज़रूरत होगी , उनकी कोई ना कोई ग़ज़ल या शेर रास्ता दिखाते हुए नजर आयेंगे।

डॉ .अनुराग on अगस्त 27, 2008 ने कहा…

अहमद फराज का जाना उर्दू अदब का एक बड़ा नुकसान है ओर इंसानियत के तौर पर एक बेहतरीन इंसान का......

Sajeev on अगस्त 27, 2008 ने कहा…

मनीष भाई, फ़राज़ साहब को आपने इतने अच्छे अंदाज़ में श्रधांजलि दी है की उन्हें याद कर आखें नम हो गयी, दरअसल फैज़ अहमद फैज़ के बाद वो उर्दू में पाकिस्तानी शायरों में सबसे आला स्थान रखते थे, शायरी को इतने ऊँचे मुकाम पर ले जाने के लिए उन्हें साहित्य संगीत से जुदा हर शख्स हमेशा याद रखेगा

कंचन सिंह चौहान on अगस्त 27, 2008 ने कहा…

वो गया था साथ ही ले गया, सभी रंग उतार के शहर का
कोई शख्स था मेरे शहर में किसी दूर पार के शहर का

चलो कोई दिल तो उदास था, चलो कोई आँख तो नम रही
चलो कोई दर तो खुला रहा शबे इंतजार के शहर का

किसी और देश की ओर को सुना है फराज़ चला गया
सभी दुख समेत के शहर के सभी कर्ज उतार के शहर का ...

Faraz sahab ko shraddhanjali me jhude hatho me ek hath mera bhi......!

siddheshwar singh on अगस्त 27, 2008 ने कहा…

बहुत ही अच्छी प्रस्तुति!
श्रद्धांजलि!

पारुल "पुखराज" on अगस्त 27, 2008 ने कहा…

bahut acchha likha hai manish....shraddhanjali

Dawn on अगस्त 27, 2008 ने कहा…

I think jo tumne mehasus kiya wohi meine bhi kiya! Tumhari post parhte waqt yehisab mere zehan mein tha!
Behad afsos ki baat hai....oon se waise to koi rishta nahi lekin shayari aur urdu se lagaav ke karan onke liye jo dil mein ek jagah bana li ...jis wajah se woh khalipan sa reha gaya hai ab!

Khush rahein sada

Abhishek Ojha on अगस्त 28, 2008 ने कहा…

News mein padha par itani jaankaari nahin thi... dhanyavaad is post ke liye !

Anita kumar on अगस्त 28, 2008 ने कहा…

बड़िया पोस्ट

योगेन्द्र मौदगिल on अगस्त 29, 2008 ने कहा…

मनीष जी,
आपने वाकई पुण्य का काम किया है.
फराज साहब के जाने के दुख के बावजूद..
बधाई...

admin on अगस्त 29, 2008 ने कहा…

अहमद फराज किसी शख्स का नाम नहीं, उर्दू शायरी के एक बेहतरीन कालखण्ड का नाम है। पर अब तो उनके कलाम और यादें ही बची हैं।

Charu on अगस्त 31, 2008 ने कहा…

ahmed faraz saheb ki likhi hui ghazal "ranjish hi sahi" hamesha meri pasandida rahi hai. apki ye post nisandeh atayant bhavpurna hai.

विधुल्लता on जून 20, 2016 ने कहा…

क्या बात फ़राज़ जी को श्रधांजलि

Unknown on अप्रैल 12, 2021 ने कहा…

Naman 🙏🏻🙏🏻

 

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