मंगलवार, अक्तूबर 23, 2007

रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने..गुलज़ार की नज्म उन्हीं की आवाज़ में..


इंसानी रिश्तों का क्या है..
बड़े नाजुक से होते हैं...
इनकी गिरहें खोलना बेहद मुश्किल है
जितना खोलों उतनी ही उलझती जाती हैं..
और किसी रिश्ते को यूँ ही ख़त्म कर देना इतना आसान नहीं...
कितनी यादें दफ्न करनी पड़ती हैं उसके साथ...


माज़ी के वो अनमोल पल, उन साथ बिताए लमहों की अनकही सी तपिश...
कुछ ऍसा ही महसूस करा रहें हैं गुलज़ार अपनी इस बेहद खूबसूरत नज़्म में ....
कितने सुंदर शब्द चित्रों का इस्तेमाल किया है पूरी नज़्म में गुलज़ार ने कि इसकी हर इक पंक्ति मन में एक गहरी तासीर छोड़ती हुई जाती है...


रात भर सर्द हवा चलती रही
रात भर हमने अलाव तापा
मैंने माज़ी से कई खुश्क सी शाखें काटी
तुमने भी गुजरे हुए लमहों के पत्ते तोड़े
मैंने जेबों से निकाली सभी सूखी नज़्में
तुमने भी हाथों से मुरझाए हुए ख़त खोले
अपनी इन आँखों से मैंने कई मांजे तोड़े
और हाथों से कई बासी लकीरें फेंकी
तुमने भी पलकों पे नमी सूख गई थी, सो गिरा दी

रात भर जो भी मिला उगते बदन पर हमको
काट के डाल दिया जलते अलावों में उसे
रात भर फूकों से हर लौ को जगाए रखा
और दो जिस्मों के ईंधन को जलाए रखा
रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने..


और अगर खुद गुलज़ार आपको अपनी ये नज़्म सुनाएँ तो कैसा लगे। तो लीजिए पेश है गुलज़ार की ये नज़्म 'अलाव' उन्हीं की आवाज में....

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11 टिप्पणियाँ:

मीनाक्षी on अक्तूबर 23, 2007 ने कहा…

इंसानी रिश्तों का क्या है..
बड़े नाजुक से होते हैं...
इनकी गिरहें खोलना इतना आसान नहीं
जितना खोलों उतनी ही उलझती जाती हैं..


मर्म भेदी बात कह दी आपने...

Udan Tashtari on अक्तूबर 23, 2007 ने कहा…

रात भर सर्द हवा चलती रही
रात भर हमने अलाव तापा

--गुलजार साहब को उनकी आवाज और अंदाज में सुनना एक अद्भुत अनुभूति है. आभार इस प्रस्तुति का.

कंचन सिंह चौहान on अक्तूबर 24, 2007 ने कहा…

वाह! गुलजार के अलावा कौन कह सकता है इस अंदाज़ में अपनी बात! े

तुमने भी पलकों पे नमी सूख गई थी, सो गिरा दी
एवं
रात भर जो भी मिला उगते बदन पर हमको
काट के डाल दिया जलते अलावों में उसे

ये उपमा उन्ही को सूझ सकती है।

SahityaShilpi on अक्तूबर 24, 2007 ने कहा…

मनीष भाई!

पिछले कई दिनों से अपनी व्यस्तता के चलते चिट्ठा-जगत से अनुपस्थित रहने के बाद आज कुछ वक्त मिला है चिट्ठों को पढ़ पाने का. और शुरुआत में ही इतनी खूबसूरत नज़्म पढ़ कर दिल खुश हो गया. गुलज़ार साहब की सोच और उनका कहने का अंदाज़, दोनों ही अद्भुत हैं.

आभार इसे सुनवाने का!

- अजय यादव
http://ajayyadavace.blogspot.com/
http://merekavimitra.blogspot.com/

रजनी भार्गव on अक्तूबर 24, 2007 ने कहा…

गुलज़ार जी की आवाज़ और उनकी नज़्म, क्या कहने, सुन कर मज़ा आ गया. धन्यवाद मनीष जी.

पारुल "पुखराज" on अक्तूबर 24, 2007 ने कहा…

pahley bhi kayii baar suni hai ye nazm...manish jii bahut bahut shukriya...gulzaar to kabhi puraney hotey hi nahi,aur unki avaaz key to kya hi kahney....

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` on अक्तूबर 25, 2007 ने कहा…

हर साँस मेँ भिगी हुई छटपटाहट,
हर लफ्ज़ मेँ सिमटा हुआ प्यार
अहसास का दरिया कहते हैँ जिसे
ऐसी होतीँ हैँ गुलज़ार की हर बात

बेनामी ने कहा…

बहुत अच्छा लगा इसको सुनकर। शुक्रिया।

Manish Kumar on अक्तूबर 27, 2007 ने कहा…

आप सब का शुक्रिया गुलज़ार की इस नज्म को पसंद करने का.

सुशील छौक्कर on अगस्त 18, 2009 ने कहा…

वाह वाह वाह गुलजार जी की आवाज और उन्हीं के शब्द। क्या कहे बस दिल खुश हो गया।

बेनामी ने कहा…

गुलज़ार साहब महान रचनाकार है

 

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