मंगलवार, अक्तूबर 02, 2007

हिंदी पखवाड़ा , महुआ माजी और मेरी कविता...

पिछले दस सालो से मैं हिंदी पखवाड़े में लगातार हिस्सा लेता आ रहा हूँ। मुख्य वज़ह तो यही है कि इसी बहाने हिंदी में लिखने का अवसर मिल जाया करता है और पुरस्कार मिलते हैं सो अलग। पर क्या ये पखवाड़ा मुझे राजभाषा में कार्य करने के लिए प्रेरित कर पाता है ? दरअसल ये प्रश्न ही गलत है, जिस व्यक्ति की मातृभाषा हिंदी हो उसे क्या अपनी भाषा में काम करने के लिए प्रेरित करना होगा ?

पर तक़लीफ की बात है कि करना पड़ता है और तब भी हम प्रेरित नहीं हो पाते !

मन ये बात स्वीकार करने से हिचकता है कि राजभाषा के नाम पर किये जा रहे ये सारे कार्य एक छलावा नहीं हैं औरइनका एकमात्र उद्देश्य आंकड़ों की आपूर्ति कर संविधान के अनुच्छेदों की भरपाई कर लेना भर नहीं है।

अगर राष्ट्रभाषा की अस्मिता के बारे में हमारी सरकार इतना ही सजग होती तो रोजगार के अवसरों में इस तरह राष्ट्र और आंचलिक भाषाओं के विषयों का समावेश करती, जिसमें प्राप्त अंक बाकी विषयों के साथ जुड़ते। ऍसा होने पर स्कूल के समय से ही विद्यार्थी अपनी भाषा को उपेक्षा की दृष्टि से ना देखते।

आज हालत ये है कि हाई स्कूल के पहले तक अपनी मातृभाषा पढ़ने के लिए बस इतनी मेहनत करते हैं कि वो उसमें उत्तीर्ण भर हो जाएँ। इसके बाद तो सारा तंत्र ही इस तरह का है कि जीवन मे आगे बढ़ने के लिए जितना अंग्रेजी के पास और जितना अपनी भाषा से दूर रहें उतनी ही ज्यादा सफलता की संभावना है।

इस परिपेक्ष्य में राजभाषा पखवाड़ा, समस्या की जड़ पर ना चोट कर उसके फैलने के बाद इस तरह की सालाना क़वायद महज खानापूरी नहीं तो और क्या है? पर इतना सब होते हुए भी ये पखवाड़ा व्यक्तिगत तौर पर मुझे एक सुकून देता है।

राजभाषा के प्रचार प्रसार की बात को थोड़ी देर के लिए भूल जाएँ तो एक हिंदी प्रेमी होने के नाते यही एक मौका होता है जब हिंदी पर बात करने के लिए सब वक़्त निकालते हैं। तकनीकी कार्यों के बीच अचानक ही किसी विषय पर हिंदी में लेख, कविता , कहानी, प्रश्नोत्री में भाग ले कर आना मुझे स्कूल के दिनों जैसा ही रोमांचित कर देता है। और फिर पखवाड़े के आखिरी दिन हिंदी जगत से जुड़े किसी गणमान्य व्यक्ति , जो कि हमारे कार्यक्षेत्र से बिल्कुल ही पृथक परिवेश से आते हैं, को सुनना बेहद सुखद अनुभव होता है।


इस बार हमारे कार्यालय में झारखंड की नवोदित उपन्यासकार महुआ माजी को बुलाया गया था जिनके 'राजकमल' द्वारा प्रकाशित उपन्यास 'मैं बोरिशाइल्‍ला' को इसी जुलाई में लंदन में 'इंदु शर्मा कथा सम्मान' से नवाज़ा गया था। महुआ जी ने बांगलादेश की पृष्ठभूमि पर रचे अपने उपन्यास के बारे में विस्तार से चर्चा की। लंदन प्रवास के दौरान विदेशों में बसे भारतीयों के हिंदी प्रेम से वो अभिभूत दिखीं। समाजशास्त्र में स्नात्कोत्तर करने वाली महुआ माजी का कहना था कि

"...एक बाँगलाभाषी होते हुए भी मेरे द्वारा हिंदी में लिखा गया पहला उपन्यास मुझे इतनी प्रसिद्धि दिला गया। ये साबित करता है कि हिंदी लेखन पर भी आज भी आलोचकों की नज़र है और उसे गंभीरता से लिया जा रहा है। अपनी संस्कृति को क्षय से बचाने के लिए अपनी भाषा को अक्षुण्ण रखना कितना जरूरी है, ये किसी से छुपा नहीं रह गया है। इसलिए आप चाहे अंग्रेजी में जितनी भी प्रवीणता हासिल क्यूँ ना करें, विश्व में दूसरी सबसे अधिक संख्या में बोली जाने वाली अपनी राष्ट्रभाषा को अनदेखा ना करें।....."

महुआ जी के लेखन के बारे में तो उनकी किताब पढ़ने के बाद ही पता चलेगा। वापस लौंटते हैं अपने हिंदी पखवाड़े की ओर..
इस बार के हिंदी पखवाड़े में हम कार्मिकों से वहीं एक विषय देकर निबंध, कविता और कहानी लिखवाई गई।

इस बार की कविता का विषय था 'संध्या या शाम'। ऍसे तो कविता लिखी नहीं जाती। आप तो जानते ही हैं कि कविता लिखने का मेरा हिसाब भी पखवाड़े की तरह सालाना का ही है। वैसे भी इस बार तो ये सीमित समय वाली परीक्षा थी, तो मरता क्या ना करता लिखनी ही पड़ी..

शाम..........

उसकी आहट से मन में पुलक है,
प्रतिदिन उसका रूप अलग है,
छोड़ के बैठा मैं सब काम,
देखो आने वाली शाम ...

भोर, दुपहरी के बाद वो आती
कुछ इठलाती, कुछ मुसकाती
हवा के झोंके वो संग लाती
मेरी प्यारी, निराली शाम...

सूरज का चेहरा तन जाता
विद्यालय से वापस मैं आता
बढ़ती गर्मी, तपता हर ग्राम
तब ठंडक पहुँचाती शाम...

बचपन बीता आई जवानी
जीवन की थी बदली कहानी
इंतज़ार में थी हैरानी
पर वो आती, संग शाम सुहानी...

जीवन का ये अंतिम चरण है
संग स्मृतियों के कुछ क्षण हैं
आज इन्हें जब वो लेकर आती
और भी न्यारी लगती शाम....
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10 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari on अक्तूबर 02, 2007 ने कहा…

बात मानिये मेरी-अब कविता नियमित लिखें...ऐसी उम्दा विचारयुक्त कवितायें कम ही समने आती हैं.

आपका डंका बजेगा..लिखिये तो..शुरुवात तो हो चुकी है. बहुत बधाई और शुभकामना...

हम अपनी दुकान के लिये खुशी खुशी ताला खरीदने जा रहे हैं. आपका स्वागतम.

Vikash on अक्तूबर 02, 2007 ने कहा…

हाँ हाँ...समीर जी सही कह रहे हैं.
आप कवितायें लिखा किजिए. पढ़ने के लिये तो हम हैं ही. :)

अनिल रघुराज on अक्तूबर 02, 2007 ने कहा…

मरता क्या न करता। चलिए अच्छा किया कविता लिख मारी। शाम और स्मृतियों के साथ में और गहरे पैठिए, तब मजा आएगा।

Manish Kumar on अक्तूबर 02, 2007 ने कहा…

समीर जी और विकास हमारे सालाना प्रयास के लिए उत्साह वर्धन के लिए धन्यवाद, वैसे भाई ये विधा आप लोगों को मुबारक। बस गद्य लेखन में ही बने रह पाएं वही बहुत है।

अनिल भाई सही कहा आपने.. वो तो आधे घंटे में जो सूझा उसी को जोड़ तोड़ कर तुक मिला दिया, बस...

mamta on अक्तूबर 03, 2007 ने कहा…

कविता तो अच्छी लिखी है और महुआ मांझी के बारे मे जानकारी देने का शुक्रिया।

rachana on अक्तूबर 03, 2007 ने कहा…

अगर ये आधे घन्टे मे लिखी गई है तो अच्छी है.अच्छे शबद संयोजन के साथ आपने विषय को बाँधे रखा है..वैसे कविता जब विषय और समय के बन्धन से मुक्त होकर लिखी जाये तो उसमे अभिव्यक्ति बेहतर होती है.....

कंचन सिंह चौहान on अक्तूबर 03, 2007 ने कहा…

मैं समीर जी की तो नही लेकिन रचना जी की बात से सहमत हूँ।

VIMAL VERMA on अक्तूबर 03, 2007 ने कहा…

अच्छा तो ये भी जानते है आप वाह खूब जानते है आप लिखिये हम पढने को तैयार है.

Manish Kumar on अक्तूबर 04, 2007 ने कहा…

रचना जी, कंचन समय की पाबंदी अवश्य एक कठिनाई थी पर विषय मेरे मन का ही था।

ममता जी शुक्रिया !

विमल भाई ये सब नहीं आता भाई, कभी कभार यूँ ही कोशिश कर लेता हूँ। वैसे घबराए नहीं इसकी पुनरावृति की दर तो सालाना है, आप को तो मैं गीत ही सुनाऊँगा

पारुल "पुखराज" on अक्तूबर 08, 2007 ने कहा…

बहुत खूब मनीश जी….सुंदर शाम,प्लीज़ लिखते रहें

 

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