रविवार, जुलाई 01, 2007

दिल्ली है दिलवालों कीः कौन से मुद्दे उठे आपसी बातचीत में भाग :२

पिछली पोस्ट में आपने पढ़ा कि किस तरह हम सब २९ की शाम को दिल्ली के पार्क होटल में इकठ्ठे हुए। अब पढ़िए उसके आगे की दास्तान...

बात अरुण जी से शुरु हुई कि आखिर वो पंगे लेते ही क्यूँ हैं? पिछली रात को फोन पर वैसे वो इनकी पृष्ठभूमि मुझे विस्तार से बता चुके थे। मैंने उनसे कहा कि बहुत सारे लोग तो आपके चिट्ठे का नाम देखकर ही घबड़ा जाते हैं। उन्होंने भी स्वीकार किया कि वक्त के साथ वो समझ रहे हैं कि ब्लागिंग के और भी आयाम हैं। और आगे से वो पंगो तक ही अपनी लेखनी सीमित नहीं रखेंगे और अपने तकनीकी अनुभवों को सबके साथ बाँटेंगे।

मैंने तो सबसे यही कहा कि आप समझें कि कोई आपको उकसाने के लिए कुछ लिख रहा है तो त्वरित बहस में मत कूदें। उससे भाषा पर संयम जाता रहता है और उस विषय पर स्वस्थ वाद-विवाद तो नहीं बढ़ पाता पर मसाले की तालाश में आए पाठकों के लिए अच्छी सामग्री का जुगाड़ हो जाता है। नारद पर हुए हाल के वाद विवाद में मैंने समर जी के चौखंभा पर लिखे लेख का जिक्र किया जो मुझे पूरे प्रकरण का सबसे संतुलित विवेचन लगा था । इस बारे में सबकी अपनी‍‍‍-अपनी मुक्तलिफ राय थी पर इस बात में हम सब एकमत थे कि नारद पर जिस तरह के भी निर्णय लिए जाएँ वो consistent हों। अगर एक दशा में एक निर्णय लिया गया है तो आगे से वो उसी निष्पक्षता के साथ दूसरी दशा में भी लिया जाए तभी वो निर्णय सर्वमान्य होगा।

चिट्ठा चर्चा के बारे में विचार उठे। शैलेश ने अपने विचार दुहराए कि जो लोग उसको सँभाल रहे हैं ये उनकी पूरी जिम्मेदारी है कि वे उसके स्तर को बनाए रखें। अमित ने उनकी बात से असहमति जाहिर की। कहा कि भाई जो चिट्ठा चर्चा जैसे ढ़ंग से करना चाहे ये उसकी मर्जी है, अगर अपने ढ़ंगसे करना चाहते तो खुद भी मैदान में कूदो। मैंने दोनों ही विचारों से अपने आप को पूर्णतः सहमत नहीं पाया। पर चूंकि उस टीम का कोई सदस्य हमारे बीच नहीं था इसलिए बाकी लोगों ने विस्तार से इस मसले पर कुछ नहीं कहा। शायद मसिजीवी होते तो वो इसके संचालकों का पक्ष रख पाते।

मैथिली जी ने हिंदी के सॉफ्टवेयर के विकास में अपनी संस्था के योगदान का जिक्र किया। हिंदी चिट्ठाकारी से अधिकाधिक लोगों के जुड़ने के लिए उनकी दिल्ली और मुंबई में ऐसी कार्यशाला आयोजित करने का विचार है जिसमें इसके बारे में व्यवहारिक जानकारी दी जा सके। शैलेश भारतवासी ने भी बताया कि वो हिंद युग्म के सदस्यों के सहयोग से फोन के द्वारा हिंदी ब्लागिंग की जानकारी देने की योजना को मूर्त्त रूप देने का विचार कर रहे हैं। ये सारे छोटे-छोटे कदम बेहद सराहनीय लगे। अगर हम सब इनकी पुनरावृति अपने अपने इलाकों में कर सकें तो हिंदी में इस विधा के फैलने में मदद मिल सकेगी।

प्रश्न उठा कि अक्सर जब चिट्ठाकार बंधु कुछ मेहनत कर सार्थक जानकारी अपने चिट्ठे पर उपलब्ध कराते हैं, उन्हें उस पर वो प्रतिक्रिया नहीं मिल पाती जो उन्हें उस तरह के सतत लेखन के लिए प्रेरित कर सके। जगदीश भाटिया जी ने पूंजी बाजार में नया कुछ ना लिखने के लिए पाठकों की इस उदासीनता का जिक्र किया। दरअसल आम पाठक जो हिंदी चिट्ठाजगत में ज्यादातर खुद चिट्ठाकार होता है, इतनी जल्दी में होता है कि जिस विषय को समझने में ज्यादा दिमाग लगाना पड़े उससे वो कतराने लगता है। पर सबने महसूस किया कि अगर हम सार्थक सामग्री थोड़ा-थोड़ा कर के ही सही पर लगातार परोसते रहे तो सर्च इंजन का रास्ता पकड़ कर पहुंचने वाले पाठकों की तादाद बढ़ती रहेगी। चूंकि वो पाठक उस खास विषय को ढ़ूंढ़ता हुआ वहाँ पहुँचा है इसलिए वो वक्त देकर उससे लाभान्वित हो पाएगा। रवि रतलामी जी ने हाल ही में ये बात कही थी कि अंग्रेजी चिट्ठाजगत में ऐसे कई नामी चिट्ठे हैं जहाँ प्रतिक्रियाएँ तो बहुत कम दिखती हैं, पर जो पाठकों की आवाजाही में अव्वल नम्बर रखते हैं। अमित ने भी अपने अंग्रेजी के तकनीकी चिट्ठे के बारे में बताया कि पिछले दो साल से अक्रियाशील होने के बावजूद उसपर सामग्री की वजह से होने वाली हिट्स हजारों में होती है।

दिल्ली में ही हो रही अगली ब्लागर मीट में जगह के बारे में भी बात चली। कितने लोग आएँगे उस संख्या को लेकर अभी भी सबके विचार भिन्न दिखे। दिल्ली के साथियों से मैंने ये भी गुजारिश की कि वो मध्य प्रदेश, छत्तिसगढ़, बिहार, उत्तर प्रदेश में भी ऐसे सम्मेलन कराने की सोचें ताकि हमारे बाकी के साथी भी एक दूसरे मिल सकें।


मैथिली जी और अरुण जी को दूर जाना था सो ६.३० बजे तक उन्होंने हमसे इजाजत ले ली। मैंने सबको कहा कि भाई चाय पानी के लिए तो हम सबको बाहर ही निकलना पड़ेगा पर चर्चा जोर पकड़ चुकी थी। सबकी सहमति बनी की अभी बहस जारी रखी जाए।

देवेश खबरी से मैं पूर्णतः परिचित नहीं था। बातचीत हुई तो पता चला कि नवोदित पत्रकार हैं और डाक्यूमेंट्री बनाने का शौक रखते हैं। जगदीश भाटिया जी ने उनसे पत्रकारिता के गिरते स्तर का सवाल उठाया। ये बताना जरूरी होगा कि भाटिया जी एक बेहद सजग पाठक हैं और समाचारपत्रों में छपी खबरों को वो हमेशा से पत्थर की लकीर मानते थे। विगत कुछ वर्षों से उनके मन का मिथक टूटा है और इससे वो आहत दिखे। देवेश ने माना कि स्तरीय पाठकों के लिए वो सामग्री उपलब्ध नहीं हो रही जो होनी चाहिए.पर बात ये है कि ऐसे पाठकों की संख्या ५ प्रतिशत से ज्यादा नहीं है। उनका कहना था कि बाकी व्यापारों की तरह पत्रकारिता भी एक व्यापार है जिसका मुख्य उद्देश्य अधिक से अधिक लोगों तक पहुँच कर ज्यादा लाभ कमाना है।

सबके मन में ये जानने की उत्सुकता थी कि पत्रकार जब तरह-तरह के विषयों पर रिपोर्टिंग करता है तो उस सामग्री की विश्वसनीयता को किस तरह परखता है। क्या इस संबंध में कई लोगों से राय ली जाती है? खासकर,हिंदी चिट्ठाजगत के बारे में अब तक जितनी रिपोर्टिंग हुई है उसमें कुछ को छोड़कर सबमें गहराई का आभाव दिखा, ऐसा सबका मत था। देवेश ने कहा कि अक्सर जितने भी संपर्क सूत्र होते हैं हम उनका सहारा लेते हैं। पर ये संपर्क सूत्र हमेशा सही सूचना नहीं दे पाते।

मुझे एक बात तो स्पष्ट लगी कि जिस तरह हम पर समयाभाव में काम का दबाव बनाया जाता है उससे काम की गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ता ही है। ये बात पत्रकारों पे भी लागू होती हे कि उन्हें उनके आकाओं द्वारा कितना वक्त दिया जाता है मामले की तह तक पहुँचने के लिए। बाकी क्षेत्रों की तरह यहां भी कम और ज्यादा समर्पित लोग तो होते ही होंगे। खैर ये चर्चा तो अगली मीटिंग में चलती रहेगी जब हमारे वरीय पत्रकार बंधु उपस्थित रहेंगे। सृजनशिल्पी,नीरज,उमाशंकर,रवीश भाई होते तो इस मसले पर और गहराई से बात हो पाती।

सजीव सारथी जी एक नए चिट्ठाकार हैं। नौकरी के साथ साथ कुछ सृजनात्मक करने में दिलचस्पी रखते हैं। हमारे बहुतेरे चिट्ठाकारों की तरह घंटे दो घंटे साइबर कैफे में गुजार पाते हैं। उन्होंने उसी समस्या का जिक्र किया जिसके बारे में पहले भी हम सब कहते रहे हैं। यानि एग्रगेटर के मुखपृष्ठ पर विषय आधारित पोस्ट चुनने के लिए क्या किया जा सकता है ताकि समय की बचत हो सके। शायद इसके लिए सभी चिट्ठों को समान टैग प्रणाली अपनाने की जरुरत पड़े। पर इस समस्या का निदान सभी एग्रगेटरों के लिए जरूरी है। अमित ने इसके लिए नारद के साफ्टवेयर में परिवर्त्तन लाने की बात कही। आशा है प्रतीक भी इस बात को अपने एग्रगेटर में लाने की कोशिश में जुटे होंगे।

बातचीत का ये दौर साढ़े आठ तक पहुँच चुका था। होटल में कुछ चित्र लेने क पश्चात हम क्लब काफी हाउस की ओर बढ़ चले।

काफी की चुस्कियों के बीच में अमित, जगदीश और देवेश अपनी बातों में लगे रहे। फिर शैलेश और सजीव के सा्थ हिंदी युग्म में कविताओं के स्तर, उसमें सुधार के निरंतर उपायों पर विस्तृत चर्चा हुई। सजीव ने हिंद युग्म के आवरण पृष्ठ को बदलने का सुझाव दिया। शैलेश ने इस बाबत सीमा कुमार से सहयोग के विचार का खुलासा किया। हम सब ने माना कि हिंद युग्म में कई प्रतिभाएँ हैं और कुछ का स्तर साधारण भी है पर समय के साथ उनमें सुधार आ रहा है। शैलेश एक उत्साही युवक हैं और हिंद युग्म से अच्छे अच्छे कवियों के जुड़ने के लिए सतत प्रयत्नशील हैं। उन्होंने बताया कि इसके लिए वो अक्सर नामी साहित्यकों से मिलते भी रहे हैं।

दस बजे सजीव को विदा कर हम बगल के दक्षिण भारतीय भोजनालय में गए. करीब ग्यारह बजे जगदीश जी शैलेश और देवेश ने विदा ली । अमित से अगले एक घंटे तक परिचर्चा में सुधारों की जरूरत पर विचार विमर्श हुआ। इस बात का जिक्र हुआ कि प्रबंधन मंडल में से कई सदस्य समयाभाव की वजह से अपने दायित्व का निर्वाह नहीं कर पा रहे हैं। महफिल ओर तकनीकी अनुभागों में तो थोड़ी बहुत चहल पहल रहती है पर बाकी में कुछ खास नही होता। किताबों और घूमने फिरने से जुड़े नए अनुभाग बनाए जा सकते हैं। महफिल को भी दो अलग अनुभागों उर्दू शायरी और हिंदी कविता में बाँटा जा सकता है।हैं। परिचर्चा की असीम संभावनाओं को देखते हुए इसमें नए उत्साही लोगों के समन्वय की जरूरत है जो इसे और आगे ले जा सकें।


चिट्ठाजगत के इन्हीं पहलुओं को छूते हुए हमारा ये मिलने जुलने का कार्यक्रम समाप्त हुआ। विचार हमारे हर विषय पर एक से नहीं थे। फिर भी अलग अलग व्यक्तित्व ओर विचार के लोगों से मिलकर आपकी सोच विस्तृत होती है मन में खुशी होती है इसमें कोई शक नहीं हो सकता। आपस के मेल जोल से आप सामने वाले को एक अलग नजरिए से देख पाते हैं।
आशा है यही भावना हमारी अगली महापंचायत के प्रतिभागियों में विद्यमान रहेगी। :)



अगले भाग में चित्रों के साथ बाँटेंगे इस मुलाकात के कुछ हल्के फुल्के क्षण....:)

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17 टिप्पणियाँ:

मसिजीवी on जुलाई 01, 2007 ने कहा…

मुझे खेद है कि मैं शाम तक उस इलाके में रुका नहीं रह पाया- कुछ अन्‍य व्‍यस्‍तताएं थीं।
:
:
मैथिलीजी की कार्यशाला वाली बात महत्‍वपूर्ण है- मैं खुद भी उस दिशा में काम कर रहा हूँ- उनसे मेल-भेंट की जाएगी।

अनूप शुक्ल on जुलाई 01, 2007 ने कहा…

बहुत अच्छा लगा यह सारा विवरण पढ़कर। चिट्ठाचर्चा बढ़ते चिट्ठों के साथ दिन पर दिन कठिनतर होती जा रही है। जो लोग अभी इसे जारी रखे हैं वास्तव में वे बधाई औ घन्यवाद के पात्र हैं।
इसके स्तर के बारे में तो लोग बेहतर बतायेंगे लेकिन जैसे चर्चाकार करना चाहता है उसकी तो छूट तो उसे देनी ही होगी वर्ना यह काम बोझिल और एकरस होकर करना मुश्किल होगा। जिन लोगों ने भी पहले इसके स्वरूप पर सवाल उठाये हैं उन सबसे हमने आगे आकर चर्चा करने को कहा लेकिन ऐसा हो न सका। :)

Udan Tashtari on जुलाई 01, 2007 ने कहा…

पुनः आनन्द आया..रही चिट्ठाचर्चा की बात तो अनूप भाई तो कह ही चुके हैं. आज बढ़्ती चिट्ठों की संख्या की वजह से एक दिन में दो दो चर्चाओं का स्थान भी बन सकता है. आवश्यक्ता है कि लोग आगे आयें. अक्सर कोशिशों के बाद भी लोग आगे आते ही नहीं वरना निश्चित नये आयाम जुड़ जायें. कुछ कवि मित्र अगर आगे आयें और सिर्फ कविताओं की समीक्षा करें तो भी काफी हद तक एक नया पक्ष सामने आ जायेगा और अन्य चिट्ठा चर्चाकारों को काम भी कुछ सरल हो जायेगा.

बेनामी ने कहा…

वाह!
आपने बहुत अच्छे तरीके से मीटिंग का ब्योरेवार विवरण दिया।

बेनामी ने कहा…

बहुत सही, काफी अच्छे ढंग से summarize किया है आपने उन छह घंटों को। :)

बेनामी ने कहा…

एक सार्थक शाम रही ,मनीषजी आपके नाम | एक ठोस रपट के लिये , साधुवाद |

शैलेश भारतवासी on जुलाई 02, 2007 ने कहा…

वाह भाई वाह, अपने विचार को हमारे विचारों से अच्छा छुपाया है। अच्छा है मियाँ अच्छा है।

मैंने विदा लेते वक़्त आपसे कहा भी था कि आपकी रपट की काफ़ी तारीफ़ सुनी है। अब यही कहूँगा कि हाथ कंगन को आरसी क्या।

धन्यवाद।

मैथिली गुप्त on जुलाई 02, 2007 ने कहा…

धन्यवाद मनीष जी; आपने बहुत अच्छी रपट पेश की है. काश मैं आपके पास और रुक पाता!

Yunus Khan on जुलाई 02, 2007 ने कहा…

मनीष अच्‍छा लगा जानकर कि दिल्‍ली यात्रा इतनी सुखद रही । विवरण अच्‍छा लिखा है, क्‍या आपका काम आपको मुंबई पहुंचने की मोहलत नहीं देता । कभी यहां भी पधारें ।
कुछ दिलचस्‍प लोग इस शहर में भी रहते हैं । हां ये अलग बात है कि अमिताभ बच्‍चन की तरह लंबे बसे इस शहर में दूरियां ज्‍यादा हैं और वक्‍त कम । पर आप आयें तो
सही । मसिजीवी आये थे पर उन दिनों हम शहर से बाहर थे ।

Sanjeet Tripathi on जुलाई 02, 2007 ने कहा…

मनीष भाई आपके विवरणों के तो हम कायल रहे ही है, चाहे वाह यात्रा विवरण हो या फ़िर यह ब्लॉगर मीट का विवरण!!

बढ़िया विवरण दिया आपने, शुक्रिया!!

Rajesh Roshan on जुलाई 02, 2007 ने कहा…

मैं नही आ पाया इसका मुझे बहुत दुःख है । तबियत कुछ जायदा खराब हो गई थी । अब फिर भी ठीक है । अब मैं जब घर जाऊंगा तब आपसे मुलाकात होगी । कावेरी, पंजाब या फिर सुजाता में । :)

Srijan Shilpi on जुलाई 02, 2007 ने कहा…

आपके दिल्ली आने की आहट मिली थी, पर हम खुद शहर से बाहर थे, इसलिए आपसे मिलने से चूक गए। मिलन का विवरण पढ़कर बहुत अच्छा लगा और साथियों के बीच हुई चर्चाके सारांश से कुछ समझने को भी मिला।

देवेश वशिष्ठ ' खबरी ' on जुलाई 02, 2007 ने कहा…

मनीष जी,
ब्लोगर मैत्री मुलाकात के चित्रों का इंतजार बेसबरी से हो रहा है, जल्दी से भेज दें।( पिछला फोटो मैंने देख लिया है, मैं भी ढंग का लग जाता हूँ कभी कभी, ये पहली बार ही पता चला, आगे के फोटू किसी क्राइम सीरियल की टी आर पी बढा सकते हैं)। शैलेश जी का फोन क्यों व्यस्त था, सखा था या सखी, इस बारे में मैं बिल्कुल निश्चिन्त हूँ कि सखा ही रहा होगा, क्योंकि उनका वैसा फोटो अभी जारी नहीं किया गया कि किसी सखी के वो मोस्ट वांटेड हो जायें।
'खबरी'

Sajeev on जुलाई 02, 2007 ने कहा…

waah manish lagta hai jaise ek ek pal dobara ji liya us shaam ka

उन्मुक्त on जुलाई 02, 2007 ने कहा…

पढ़ कर अच्छा लगा।

Manish Kumar on जुलाई 04, 2007 ने कहा…

कल फिर एक दिन के लिए दिल्ली जाना हुआ, तो सृजन शिल्पी से मुलाकात हुई ओर नीरज दीवान से फोन पर बात हुई।

मिलना जुलना तो हमेशा ही एक रोचक अनुभव रहता है। आप सब का शुक्रिया जो अपना कीमती वक्त निकाल कर उस शाम को यादगार बनाने के लिए। मसिजीवी, इसमें खेद की क्या बात है आपने तो कहा ही था कि आप एक बजे तक खाली होंगे पर उस वक्त मैं तो आफिस से लौट नहीं पाया था।

घुघूति जी, प्रतीक, प्रमेंद्र, अफलातून जी,अनूप जी, समीर जी, संजीत, ममता जी, यूनुस, उनमुक्त प्रतिक्रिया देने के लिए धन्यवाद!!

उमाशंकर सिंह on जुलाई 17, 2007 ने कहा…

ऐसी ही गंभीर सोच के साथ आगे बढ़ने की ज़रुरत है। बढ़िया

 

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